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“मूंड मुंड़ावत सब ही गड़रिया, हरिण रोज बन धाम, जटाधर वट भस्म लगावत, रासभ सहतुं हे धाम । एते पर नहि योग की रचना, जो नहि मन विश्राम, चित अंतर पट छलवेकुं चिंतवत कहा जपत मुख राम । जब लग आवे नहिं मन ठाम ।"
आनंदघन और यशोविजय : 51
उपाध्याय यशोविजयजी तो आत्मदर्शन का स्वरूप गुरूकृपा से प्राप्त करते हैं । इस बारे में वि. सं. १७३८ के बाद रचित 'श्रीपाल रास' के चौथे खंड के अंतिम भाग
“ माहरे तो गुरु चरण पसायें अनुभव दिल में पेठो, ऋद्धि वृद्धि प्रगटी घटमांहि, आतम रति हुई बेठो ।”
जब आत्मा में समकित का सूर्य तपता है तब भ्रमरूपी तिमिर भाग जाता है। और अंतर में अनुभवगुण का आगमन होता है । इस समय उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं :
'ध्यायो सही पायो रस, अनुभव जाग्यो जस; मिट गयो भ्रम को मस, ध्याता ध्येय समायो हे । प्रगट भयो प्रकाश, ज्ञान को महा उल्लास; ऐसो मुनिराज ताज, जस प्रभु छायो हे ।।"
ध्याता और ध्येय एकरूप हो जाते हैं तब कैसी अपूर्व आनंदानुभूति होती है । आत्मा में परमात्मा प्रकटित होता है, उस समय की स्थिति को प्रकट करते हुए आनंदघन कह उठते हैं 4.
“ अहो हुं अहो हुं मुझने कहुं
नमो मुझ नमो मुझ रे ।” ( स्तवन : 16, गाथा : 13 )
( अहो मैं अहो मैं अर्थात् मैं कितना अच्छा हूँ । नमस्कार करो मुझे, नमस्कार करो । ( स्तवन १६, गाथा. १३)
उपाध्याय यशोविजयजी ने आनंदघन की तरह पद भी लिखे हैं और उसमें चेतन को ‘मोह को संग' का निवारण करके 'ज्ञानसुधारस' को धारण करने के लिए कहा गया है । इसी तरह ' कब घर चेतन आयेंगे' में उपाध्याय यशोविजयजी ने का विरह चित्रित किया है । आनंदघन के पदों में सुमति के विरह का धक आलेखन मिलता है । उसमें कवि कहते हैं कि सुमति दुःखमंदिर के झरोखे से नजरें मिला मिलाकर झुक झुककर देखते हैं । विरह दशारूपी नागिन उसके प्राणवायु को पी जाती है और इससे भी अधिक विरह की विकट वेदना को दर्शाते हुए सुमति कहता है :
“शीतल पंखा कुम कुमा, चंदन कहा लावे हो ? अनल विरहानल य हैं तन ताप बढ़ावे हो । " 9.
शीतल पदार्थ, पंखा, कपूर या चंदन का घोल किसलिए लाते हैं ? यह शरीर की गर्मी नहीं है । यह तो आत्मानंद के विरह की अग्नि है । उसे तो यह पदार्थ शीतलता प्रदान करने की जगह अधिक तपाने वाला है । इस तरह आनंदघन और
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