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50 : आनंदघन
लिखा है और ऐसे वादविवाद करने वाले के बारे में वे कहते हैं : " वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तो निश्चितान् तथा । तत्त्वांतं नैव गच्छन्ति तीलपीलकवद गतौ । । 26 वाद विवाद और प्रतिवाद होने पर तेली के कोल्हू जैसी स्थिति होती है और उसमें तत्त्वों का पार नहीं मिलता । जड़ता और मतांधता पर इन दोनों महापुरुषों ने प्रहार किये हैं । यशोविजयजी 'यशविलास' के सैंतालिसवें पद में कहते हैं। " प्रभु गुन ध्यान विग्रह भ्रम भूला; करे किरिया सो राने रूना ।"
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जबकि आनंदघन भी ऐसी जड़ क्रिया का विरोध करते हुए कहते हैं: “निज सरूप जे करिया साधिड़, ते अध्यात्म लहीड़ रे, जे किरिया करि चोगति साधन, ते अनध्यातम कहिये रे । । "
( स्तवन : 11, गाथा : 3)
ये साधक तो संसार से ऊपर चलते थे । आनंदघनजी ने चार गतिरूप चौसर की सुन्दर कल्पना की हैं। इसमें चेतन ऐसा मान कर चौसर खेलता है कि राग, द्वेष और मोह के पासा स्वयं के लिए हितकर हैं, परन्तु दूसरे की आशा सदा निराशा देती है । आनंदघन तो स्पष्ट कहते हैं कि “ आशा औरन की क्या कीजे ? ज्ञान सुधारस पीजे । " 7 इसी प्रकार श्री यशोविजयजी 'ज्ञानसार' के बारहवें 'निःस्पृहाष्टक' में लिखते हैं:
“अपने स्वभाव-निजगुण की प्राप्ति के अलावा दूसरा कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है उसी तरह आत्म ऐश्वर्य से संपन्न महामुनि बिल्कुल निःस्पृह हो जाते हैं । बेचारे दूसरों की आशा पर निर्भर प्राणी हाथ जोड़-जोड़कर प्रार्थना करते हैं, घर घर भिक्षा मांगते हैं, परन्तु अनंत ज्ञानपात्र प्राणी तो समस्त जगत को तिनके के समान देखता है ।"
आनंदघनजी प्रथम तीर्थंकर ऋषभ जिन स्तवन में प्रीतम ऋषभ जिनेश्वर के साथ प्रीति सगाई हुई होने से उन्हें जगत की सोपाधिक प्रीति पसंद नहीं है । इसी प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी श्री शांतिनाथ जिन स्तवन में यही बात कहते हैं ।
" जाण्यो रे जेणे तुज गुण लेश, बीजो रे रस तेहने मन नवि गमे जी, चाख्यो रे जेणे अम लवलेश, बाकस बुकस तस न रुचे कीमे जी ।"
( हे प्रभु ! जिसने तुम्हारे गुण को लेशमात्र भी जान लिया है उसे कोई भी दूसरा स्वाद अच्छा नहीं लगता । जिसने अमृत के बूँद का स्वाद चखा है, उसे और किसी बात में रुचि नहीं होती ।)
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मात्र वेश धारण कर लेने से कोई साधु नहीं बन सकता । जो सच्चा आत्मज्ञानी है वही सच्चा साधु है | आनंदघनजी श्री वासुपूज्य जिन स्तवन की छठीं गाथा में कहते हैं कि जो आत्मज्ञानी नहीं है वह तो केवल ढोंगी है । बाह्यदृष्टि में सिर मुड़वाने से कोई लाभ नहीं । अन्तर की आत्मा सद्गुणों से समृद्ध होनी चाहिए । इसी प्रकार आनंदघन की तरह यशोविजयजी भी कहते हैं :
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