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52 : आनंदघन
यशोविजय समकालीन थे । परस्पर मिले थे । उनकी भावनाएँ और अध्यात्मप्रवृत्ति बहुत सबल थीं । इसके बावजूद दोनों के आत्मविकास के मार्ग भिन्न थे । आनंदघनजी अध्यात्मयोगी थे तो यशोविजयजी तत्कालीन वातावरण को समझकर अपने लक्ष्य की साधना कर रहे थे ।
आनंदघनजी आत्मलक्षी, संयमी, त्यागी और आध्यात्मिक थे । यशोविजयजी 'न्यायविशारद' और 'न्यायाचार्य' की पदवी से विभूषित हुए पंडित थे । आनंदघनजी " वेद न जानुं किताब न जानुं, जानुं न लच्छन छंदा, तर्क, वाद, विवाद न जानुं, न जानुं कवि फंदा ।”
कहनेवाले मस्तकवि थे, जबकि यशोविजयजी अध्यात्म, योग, कथा आदि विषयों पर संस्कृत, प्राकृत और गुजराती में पद्य रचना करनेवाले विद्वान कवि थे । यशोविजयजी और आनंदघनजी की पद रचनाओं में ज्ञान की गंभीरता, शास्त्रों की पारंगतता और अध्यात्म की गहराई व्यक्त हुई है । वास्तविकता तो यह है कि उपाध्याय यशोविजयजी को सभी शास्त्रों में महारथ हासिल करने के बाद भी आत्मसंतोष नहीं हुआ । उन्होंने आध्यात्म - योग के मार्ग पर चलना स्वीकार किया और इसमें आनंदघन का सम्पर्क कारणरूप रहा होगा । उपाध्याय यशोविजयजी के 'अध्यात्मसार' जैसे ग्रंथों में और स्तवनों में अध्यात्मरस की झलक देखने को मिलती है । दोनों के कवन को देखें तो आनंदघन के जैसी भाव - गहनता, व्यापकता एवं ऊर्मि की तीव्र उछाल और अलख के रहस्यों को पाने की बेचैनी यशोविजय की कृतिओं में इतने प्रमाण में नहीं दीखती, उसकी वजह यह कही जा सकती है कि आनंदघनजी कवि होने के साथ-साथ मर्मज्ञ संत भी हैं ।
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टिप्पण
'श्री आनंदघनजीनां पदो' भाग १, ले. महावीर जैन विद्यालय, ऑगस्ट क्रांति मार्ग,
मोतीचंद कापड़िया, प्रकाशक श्री मुंबई - 400036, ई. स. 1982, पृ.
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‘श्री आनंदघन पदसंग्रह भावार्थ', रचयिता : आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी, प्रका. श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडळ, मुंबई, ई. स. 1954, पृ. 138
'जैन काव्यदोहन' भाग १, संग्राहक एवं प्रकाशक श्री मनसुखलाल महेता, अहमदाबाद, ई. स. 1913, पृ. 36
'श्री यशोविजय स्मृति ग्रंथ, संपादक : पू. मुनिप्रवर श्री यशोविजयजी महाराज, प्रका. श्री यशोभारती प्रकाशन समिति, वडोदरा, ई. स. 1957, पृ. 235 ft 239
'श्रीमद् यशोविजयोपाध्याय विरचित गुर्जर साहित्य संग्रह ' ( प्रथम विभाग), प्रकाशक : शा. बावचंद गोपालजी, मुंबई, पृ. 296
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