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आनंदघन और यशोविजय
आनंदघनजी का समय समर्थ जैन साधुओं की उज्ज्वल ज्ञान परंपरा का युग था । इस काल में जैन साधुओं ने अपने तप, त्याग और वैराग्य की भावना से सर्वत्र सम्मान प्राप्त किया था । मुगल बादशाह भी उनका आदर-सत्कार करते थे । तपागच्छ के आचार्य विजयदेव सूरि को जहाँगीर बादशाह ने 'महातपा' की उपाधि दी । उसके बाद विजयआनंदसूरि, विजयसिंहसूरि और विजयप्रभसूरि ने धर्म की उज्ज्वल परम्परा बनाये रखी थी । सत्यविजयजी पंन्यासश्री ने क्रियोद्वार करके साधुसमाज में व्याप्त शिथिलता को दूर करने का प्रयास किया था । उपाध्याय यशोविजयजी की विद्वत्ता का तेज उस समय समग्र समाज को आलोकित करता
था ।
इसी समय उपाध्याय मानविजयजी ने “ स्तवन चोबीसी” एवं “धर्मसंग्रह " नामक ग्रंथ की रचना की थी । रामविजयजी ने भक्ति और ज्ञान से भरपूर ऐसी मधुर चोबीसी की रचना की थी एवं सात नय पर विस्तारपूर्वक सज्जायें लिखी थीं । ज्ञानविमलसूरि ने 'ज्ञानविलास' नाम से पदों की रचना की थी । तदुपरांत, आनंदघनजी ने चोबीसी पर और उपाध्याय यशोविजयजी ने तीन सो पचास गाथा के स्तवनों पर स्तबक लिखे थे । तपागच्छ के धर्मसागर जी तो निर्भयरूप से शास्त्रानुसार प्रत्येक गलत विचारों का खंडन करने लगे थे । उनकी आलोचनाओं ने तत्कालीन जैन समाज में खलबली मचा दी थी । इसके अलावा उस काल में लावण्यसुंदर ने “ द्रव्यसप्ततिका” और सज्जायें लिखी थी । दिगम्बर समाज में भी कई समर्थ विद्वान हुए । उसमें बनारसीदास की रचनाओं में तो अनोखा काव्यमाधुर्य और पदलालित्य देखने को मिलता है । “समयसार " नाटक में उन्होंने अनुपम कवित्वशक्ति और वैराग्यभावना दर्शाई है । आनंदघन के पदों में बनारसीदास जैसा लालित्य देखने को मिलता है । व्यापक फलक पर देखें तो रामदास, तुकाराम, तुलसीदास और अखा, उन्हें आनंदघन के समकालीन माना जा सकता है । युगप्रभावक तर्कशिरोमणि उपाध्याय यशोविजयजी उस समय के जैन
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