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आनंदघन और यशोविजय : 47 विद्वानों में मूर्धन्य स्थान पर विराजित हैं । इस समर्थ विद्वान ने आनंदघनजी को लक्षित कर उनके स्तुतिरूप " अष्टपदी" की रचना की है जिसके बारे में “आनंदघनजी का जीवन" इस प्रकरण में ब्यैरेवार देखा । योगी आनंदघनजी और उपाध्याय यशोविजयजी के मिलन की बातें जैन परंपरा में किंवदंती रूप में मिलती हैं । इस विषयक कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता । प्रचलित कथा के अनुसार मेड़ता में उपाध्याय यशोविजयजी प्रवचन देते थे और उस समय आनंदघनजी उन्हें सुनने के लिए उपाश्रय में गये थे । उसके बाद उपाध्यायजी की विनती पर आनंदघनजी ने योग पर व्याख्यान दिया था । आनंदघनजी ने अनुभवप्रचुर वाणी का उपाध्याय यशोविजयजी पर प्रबल असर पड़ा था । यह घटना उपाश्रय में घटित होने के कारण श्री मोतीचंदभाई कापड़िया का मानना है कि इन दोनों महापुरुषों का मिलन आबू के पर्वत पर नहीं बल्कि मेड़ता में हुआ था । इस अवसर पर आनंदघनजी की आनंदमय अध्यात्मदशा को देखकर उपाध्याय यशोविजयजी ने उनकी स्तुति के रूप में अष्टपदी की रचना की ।
श्री बुद्धिसागरसूरीश्वर उल्लेख करते हैं कि उपाध्याय यशोविजयजी के बारे में आनंदघनजी ने भी इसी प्रकार अष्टापदी लिखी है । यह बात उन्होंने विजापुर के शा सूरचंद सरूपचंद से सुनी थी । यद्यपि इस विषयक खोज करने पर उन्हें कोई प्र नहीं मिली थी 12 जबकि श्री मोतीचंदभाई कापड़िया मानते हैं कि ' पूज्य कभी पूजक नहीं हो सकता' तथा आनंदघनजी और उपाध्यायजी की उम्र पर विचार करने पर और योग विषय में आनंदघनजी की प्रक्रिया और अध्ययन तथा व्यवहार को लक्ष्य में रखने पर यह हकीकत असंभव मानते हैं । उसी प्रकार आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी ने आनंदघनजी के पास उपाध्याय यशोविजयजी सुवर्णसिद्धि प्राप्त करने गये थे, ऐसी किंवदंती की जानकारी निरूपित की है । परन्तु यह दंतकथा उपाध्याय यशोविजय के भव्य चरित्र से तालमेल नहीं खाती एवं इस विषयक कुछ भी आधार नहीं मिलता । इसी प्रकार 'सुगुरु तथाविध न मणे रे' ऐसी आनंदघन की पंक्ति में यशोविजय की आलोचना देखने को मिलती है । परन्तु, वास्तव में यह तो आनंदघनजी का एक सामान्य कथन है । यह किसी व्यक्तिविशेष को लक्ष्य में रख कर नहीं कहा गया ।
अध्यात्मयोगी आनंदघन और उपाध्याय यशोविजयजी के बारे में 'श्री आनंदघन पद्य रत्नावली' के निवेदन में श्री साराभाई नवाब ने एक नया मुद्दा उठाया है । वे लिखते हैं
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“परमयोगी श्री आनंदघनजी दूसरा और कोई नहीं, बल्कि न्यायविशारद श्री यशोविजयजी ही हैं, ऐसा मेरा अपना और विद्यमान कई विद्वान जैन मुनिवरों का मानना है । इस मान्यता के समर्थन में जबरदस्त सबूत यह है कि परमयोगी श्री आनंदघनजी का उल्लेख उपाध्यायजी के सिवाय सत्तरहवीं सदी का दूसरा कोई विद्वान नहीं करता । तदुपरांत, उपाध्याय जी रचित श्री आनंदघनजी की स्तुति रूप अष्टपदी के जिस पहले पद में 'मारग चलत चलत गात, आनंदघन प्यारे' इत्यादि शब्दों तथा उनके द्वारा रचित बत्तीस बत्तीसी में और श्री आनंदघनजी के पदों में
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