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44 : आनंदघन रहनेवाले आनंदघन लेखन की परम्परा में जकड़ नहीं गये ।
प्रत्येक स्तवन की प्रथम गाथा में आनंदघनजी ने तीर्थंकर का नाम दिया है, परन्तु तीर्थंकर की महिमा गान से आगे बढ़कर उनके जीवन के किसी प्रसंग का प्रथम इक्कीस स्तवनों में चित्रण नहीं किया । इन इक्कीस स्तवनों में प्रभु स्तवन के निमित्त उन्होंने आत्मदर्शन करने के प्रयास हाथ में लिये हैं । प्रभु का नाम देकर आत्मगुण की पहचान करना उद्देश्य है । इस तरह तीर्थंकर का तो मात्र नाम ही है, जबकि स्तवन का हेतु तो आंतरशत्रु पर विजय पाना है । इन स्तवनों में आनंदघनजी ने आत्मसाधना की क्रमिक विकासयात्रा का चित्रण किया है और इसीलिए इसमें विषय का सातत्य देखने को मिलता है । एक स्तवन में से दूसरे स्तवन का विचार स्फुटित होता है । साधना की एक सीढ़ी जानने के बाद साधक दूसरी सीढ़ी पर पैर रखता है । अध्यात्म पर अधिक से अधिक भार देकर स्तवन की तात्त्विक चर्चा आगे बढ़ती रहती है । इसमें सूत्रात्मक संक्षिप्त वाक्य मिलते हैं, रूढ़िप्रयोग और कहावतें मिलती हैं । उपमा, दृष्टांत, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक और श्लेष जैसे अलंकार मिलते हैं । इस तरह स्तवन ज्ञान के भंडार, योग के सोपान और सत्य मार्ग के द्योतक हैं । कहीं-कहीं कवित्व भी झलक उठता है । बाईसवें स्तवन में कविकल्पना की रमणीय लीला राजुल के उपालंभ में व्यक्त हुई है जबकि तेरहवें श्री विमलनाथ जिन के स्तवन में प्रभु प्रतिज्ञा का कैसा मधुर चित्रण किया है ।
"अमी झरी तुज मूरति रची रे, उपमा न घटे कोई,
दृष्टि सुधारस झीलती रे, निरखति तृप्ति न होई."
आत्मा जब परमात्मा-स्वरूप हो जाती है तब कैसा खुमार उभरता है! इस खुमारी का चित्रण करते हुए आनंदघन गा उठते हैं :
"अहो हुं अहो मुझनें कहूँ, नमो मुझ नमो मुझ रे, अमित फल दान दातार ने, जेहनें भेट 'थई तुज्झ रे ।”
आनंदघन का ज्ञान स्वसंवेद्य ज्ञान है । निजानंद में रहने वाला ऐसा मस्त कवि किसी का अनुगामी नहीं होता परन्तु अपने योग, वैराग्य और अध्यात्म से एक नवीन परम्परा का सर्जन करता है । आनंदघन के इन स्तवनों के विषय में आचार्य क्षितिमोहन सेन कहते हैं कि इसमें वे "मानसिक समस्याओं से व्यस्त” दिखते हैं । यद्यपि आनंदघन ऐसी समस्याओं से व्यस्त नहीं लगते । वे तो इन स्तवनों में अध्यात्म मार्ग में आनेवाली समस्याओं को प्रस्तुत करते हैं और जैनदर्शन में उनकी श्रद्धा दृढ़ रूप से निहित प्रतीत होती है । उस दर्शन का ही वे चित्रण करते हैं । इसलिए ही योग हो या अध्यात्म, वैराग्य हो या तत्त्वज्ञान प्रत्येक विषय में उनका तत्त्वविचार उच्च कोटि के प्रतीत होते हैं । योगमय अनुभवपूर्ण विचार, नैसर्गिक लाघवयुक्त वाणी और उच्च कोटि के तत्त्वविचारों के कारण आनंदघन के ये स्तवन जैन परम्परा में अलग पहचान बनाते हैं और इस प्रकार के साहित्य में उच्च स्थान पर विराजमान होते हैं।
दष्टि Ten
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