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________________ स्तवनों की तुलनात्मक चर्चा जैन स्तवनों में सामान्यतः एक या दूसरे रूप में तीर्थंकर का गुणानुवाद किया जाता था । इसमें तीर्थंकर की स्तुति होने के कारण ये स्तवन भक्तिप्रधान रचनाही हो जाती थी । अध्यात्मयोगी आनंदघन ने अपने स्तवनों में विषय के क्षेत्र में नई दिशा उद्घाटित की और उनके द्वारा खींची गई तात्त्विक चर्चा की यह लीक आगे चलकर राजमार्ग बन गई । इनके स्तवनों में तीर्थंकर के प्रति गिड़गिड़ाहट, विनती या याचना का भाव नहीं है । कवि भावना का कोई सैलाब नहीं बहाते, परन्तु ज्ञान और भक्ति के गौरवपूर्ण सायुज्य से अपना दर्शन चित्रित करते हैं । अध्यात्म गहन अनुभूतियों के अनुभवरस से भरपूर प्याले को पीनेवाले इस मस्त साधक की आत्मा इस प्रकार योग के रंग में रंग गई है कि उसकी प्रत्येक पंक्ति में गहन ज्ञान और दृढ आत्मप्रतीति का अनुभव होता है । इन स्तवनों में कोई रूढ़ भाव प्रतीत नहीं होता । कोई परम्परागत आलेखन दिखाई नहीं देता । अन्य किसी योगी का अनुकरण या अनुरटन मालूम नहीं होता । इसमें तो अपने खुद के अनुभव का हूबहू बयान है जो स्वच्छ झरने की तरह कल-कल-कल बहता जाता है और उसका वारि जिज्ञासु को गहन योगामृत से आस्वादित करता है । इन स्तवनों की वाणी स्वयंस्फुटित है । कवि को कहीं भी भावचित्रण के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता । कहीं भी शब्दों का तोड़-मरोड़ नहीं करना पड़ता । अन्तर से बिल्कुल सीधे निकली हुई वाणी का निर्व्याज सौन्दर्य इन स्तवनों में मिलता है । ज्ञान का विषय होता है वहाँ यह महानद की तरह धीर-गंभीर गति धारण करता | भक्ति की बात आने पर यह वाणी वहाँ रंगभरे उल्लास से खिली हुई देखने को मिलती है । कहीं मन के चंचल स्वरूप जब शब्द में सिद्ध किया जाये तो ऐसी स्थिति में वाणी तरल रूप धारण करती है । राजुल नेमिनाथ को उपालंभ देती हो तब उसके हृदय की व्याकुलता और दंश भी आबाद रूप से व्यक्त होते हैं । आनंदघन की कथनशैली भी उल्लेखनीय हैं । स्वयं जिस विचार का प्रतिपादन करना चाहते हैं उसके विरुद्ध विचारों की बात करनी हो तो बड़े सौजन्य से वे विरोधी विचारों की प्रस्तुति करते हैं । इसमें भी 'किसी से विरोधी विचारों को पेश करने की उनकी रीति लाक्षणिक है : "" 46 66 परम्परा और आनंदघन : 43 66 कोई कंत कारण काठ भख्यण करे” (1:3) कोई पतिरंजन ने धण तप करे " ( 1:4) कोई कहे लीला रे ललक अलख तणी" ( 1:5) कोई अबंध आतमतत माने” ( 20:2) कभी-कभी 'एक कहे' के ढंग से भी विरुद्ध विचारों का चित्रण करते हैं: " एक कहि सेवी बिविध किरिआ करी" (14:2) " एक कहे नित्य ज आतमतत" ( 20:4) प्रत्येक स्तवन का प्रारंभ अलग-अलग रीति से किया है । कहीं स्वयं परमात्मा से प्रश्न पूछकर स्तवन का प्रारंभ किया है तो कहीं परमात्मा से किसी तत्त्व की जानकारी मांगी है । इस तरह प्रत्येक स्तवन के प्रारंभ में नवीनता है, परम्परा से दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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