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42 : आनंदघन का चक्कर लगा रहेगा । कवि आनंदघन निश्चय दृष्टि से आत्मा को पहचानकर निर्विकल्प रस का पान करके आनंद की मस्ती में विचरण करने को कहते हैं।
___ उन्नीसवें श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन में अट्ठारह दोषों के निवारण की बात कही गई है । सच्चा मुनि इन अट्ठारह दोषों से रहित होगा । कषाय और नोकषाय** का निरूपण करते हुए कवि कहते हैं कि इन अट्ठारह दोषों से जो मुक्त हो वही सच्चा “मन विसरामी" कहलायेगा।
बीसवें स्तवन में परमात्मा से आत्मतत्त्व की पहचान प्राप्त की गई है । ऐसे गहन महत्त्वपूर्ण विषय पर आनंदघन थोड़ी पक्तियों से ही सचोट प्रकाश डालते हैं । अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, बौद्ध, लोकायतिक इत्यादि सम्प्रदायों का उल्लेख करके अपनी शंका व्यक्त करते हैं । तदुपरांत, वीतराग प्रभु इस शंका का समाधान करते हैं । जो सच्चा आत्मज्ञानी है, वही सांसारिक आवागमन से छुटकारा पाता है । इसके अलावा दूसरी सभी बातें वाकजाल ही समझिए । आत्मा को पहचानने के लिए राग एवं द्वेष का त्याग करना होगा । इसके बाद एक बार समस्त कर्मों से मुक्ति मिले तो मनुष्य पुन: जन्म-मृत्यु के जंजाल में नहीं फँसता इसलिए आत्मा के निश्चयनय गुणों को प्रकट करना वही सच्चा आत्मधर्म है।
श्री नेमिनाथ जिन के इक्कीसवें स्तवन में कवि ने जैनदर्शन की व्यापकता वर्णित की है । दूसरे दर्शनों की ठिठोली करना या उसे हीन बताना यह मतवादियों का सामान्य उपक्रम माना जाता है । ऐसी स्थिति में अनेकांत दृष्टि में विश्वास करने वाला जैन धर्म समस्त दर्शनों का आदर करता है । छहों दर्शनों को जिनवर के छ: अंगों के रूप में दर्शाया गया है । सांख्य और योग उनके पैर हैं । बौद्ध और वेदान्त मीमांसक जिनवर के हाथ हैं, लोकयातिक जिनवर की कोख है और मस्तक जैनदर्शन है । इस प्रकार अन्य दर्शनों को जिनवर का अंग बताया गया है और इसमें से किसी दर्शन की निन्दा करने वाले को दुर्भवी कहा गया है । जैनमत की विशालता समुद्र के समान है और उसमें नदी रूप भिन्न-भिन्न दर्शनों का समावेश हुआ है । इसके आगे ज्ञान, दर्शन और चारित्र्य की उपासना की बात कही गई है
और अन्त में, जैसा सुना था वैसा गुरु नहीं मिला इसका विषाद भी कवि ने व्यक्त किया है । इस स्तवन में जैन दर्शन की व्यापकता को कवि ने अत्यन्त मनोरम ढंग से अभिव्यक्त किया है।
इक्कीस स्तवनों में दार्शनिक आलेख हैं । बाइसवें स्तवन में तत्त्वविचार नेमराजुल के हृदय-द्रावक प्रसंग के संदर्भ में व्यक्त हुआ है । राजुल के सांसारिक ताने का उल्लेख करके अंत में उसका हृदय परिवर्तन दिखाकर नेमनाथ प्रभु के मार्ग का अनुकरण करती हुई राजुल को दिखाया गया है । यहाँ राजुल की प्रीति के भिन्नभिन्न स्वरूपों को चित्रित किया गया है और ऋषभ जिन स्तवन में जिस तरह प्रभुप्रीति से कवि ने शुरुआत की थी उसी तरह इस बाईसवें स्तवन में ध्येय और ध्याता का अद्वैत दिखाकर मनोहर समापन किया है । * आत्मा के भीतरी कलुष परिमाण को कषाय कहते हैं । ** आत्मा के भीतरी अल्प कालुष्य को नोकषाय कहते हैं ।
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