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परम्परा और आनंदघन : 41 गुरुओं की परम्परा की भक्ति करने वाला होना चाहिए । उसके मन में योग का भाव हो, मान-अपमान या वंदक-निंदक उसके लिए समान हो और उसे आत्मस्वभाव में रमण करने वाला होना चाहिए । जीवन में सभी साथ संयोग से हुए हैं । सच्चा साथ तो तेरी आत्मिक शक्ति का है ऐसा माननेवाला होना चाहिए और जब शांतिस्वरूप का आत्मसाक्षात्कार होगा तब मैं ही अपनी अन्तरात्मा को नमन कर रहा होऊँगा । कैसी अचरजपूर्ण घटना ! अन्तरात्मा जब परमात्मा स्वरुप हो जाती है तब ऐसी अपूर्व स्थिति का निर्माण होता है । इस स्तवन में आनंदघनजी ने अत्यंत संक्षेप में शांति-स्वरूप की विशेषताओं को दर्शाया है ।
जिसने मन को साध लिया है उसने सबकुछ साध लिया है । आनंदघन श्री कुंथुनाथ जिन स्तवन में ऐसे मनोविजय के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते हैं । आनंदघन ने बड़ी सहजता से मन की चंचलता का हूबहू आलेखन किया है । मन प्रभु में लगाने की कोशिश करता हूँ लेकिन मैं जितना अधिक कोशिश करता हूँ वह उतनी ही दूर भागता है । वह रात-दिन, यहाँ-वहाँ, बस्ती या निर्जन प्रदेश में आकाश या पाताल में घूमा करता है; इसके बावजूद उसे कहीं भी चैन नहीं मिलता । ज्ञान और ध्यान का अध्ययन करने वालों को यह मन बहुत बुरी हालत करता है । आगम का अभ्यासी भी इसे अंकुश में नहीं रख सकता और यदि बलात् उसे रोक भी लेता है तो वह साँप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा होकर सरक जाता है । यह मन ठग है फिर भी किसी ने इसे ठगाते हुए नहीं देखा; सभी में समाया है फिर भी किसी के हाथ में नहीं
आता । लिंग से वह नपुंसक है फिर भी अच्छे-अच्छों को अपने इशारे पर नचा सकता है । मन की माया का कवि ने सुन्दर निरूपण किया है । वह दिखाई नहीं पड़ता इसके बावजूद भी पूरी दुनिया का संचालन करता है । वह किसी के पकड़ में नहीं आता फिर उसने पूरी दुनिया को पकड़ रखा है । आनंदघन वीतराग प्रभु की प्रार्थना करते हैं कि आप ऐसा कीजिए जिससे यह मन वश में रहे । इस स्तवन में आनंदघनजी ने आत्मसाधना के लिए मन पर विजय पाना कितना महत्त्वपूर्ण है, इसेको सुचारु ढंग से व्यक्त किया है।
परमात्मा का मार्ग देखा, पूजा की विधियाँ देखीं, शांति-स्वरूप को पाया, मन पर अंकुश पाया और अब सच्चे दर्शन की आवश्यकता है । श्री अरनाथ जिन स्तवन में स्व-सिद्धांत और परसिद्धांत के बारे में समझाया गया है । जहाँ आत्मा की बात है वहाँ स्वसिद्धांत समझना चाहिए । इसके बाद निश्चय* और व्यवहार * * दोनों नय की दृष्टि से परमधर्म जानने की जिज्ञासा जतायी हैं । द्रव्य दृष्टि से आत्मानुभव एक है और उस आत्मा के अनेक पर्याय हैं । निगाह करें तो सोना पीला, भारी और चिकना लगता है, वास्तव में ये सब सोने के पर्याय हैं । इसी तरह दर्शन ज्ञान, और चारित्र्य से एक ही आत्मा के अनेक पर्याय देखने को मिलते हैं । आत्मा के एक और नित्य रूप को पहचानना और पर्यायदृष्टि (व्यवहारनय) को छोड़कर द्रव्यदृष्टि धारण करनी चाहिये । पर्याय दृष्टि रहेगी तब तक सांसारिक आवागमन * परमार्थ का विशेष रूप से तथा संशयादि रहित अवधारण निश्चित है । ** वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना व्यवहार हैं ।
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