________________
40 : आनंदघन हैं । अनुपम और अमृतमय उसकी मूर्ति को देखता हूँ परन्तु तृप्ति नहीं होती है । अन्त में कवि जिनदेव से विनती करता है कि मुझे आपकी सेवाभक्ति सदैव मिलती रहे ऐसी कृपा कीजिए।
- तलवार की धार पर नृत्य करना कठिन है, परन्तु जिनेश्वर की सेवा तो इतनी दुष्कर है कि उसके आगे तलवार की धार पर नाचना सरल लगता है । जड़ क्रियावादी सही जानकारी एवं समझ के अभाव में चार गति में भ्रमण किया करते हैं । कई लोग गच्छ के भेदों में इतनी ममता रखते हैं कि वे तत्त्व को ही भूल गये होते हैं । सच्ची सेवा के लिए सम्यक्त्व धारण करना होता है । देवता, गुरु और धर्म की प्रतीति प्राप्त करना होता है, सूत्र के अनुसार क्रिया करनी चाहिए । सापेक्ष वचन बोलने चाहिए ऐसा हो तभी परमात्मा की सच्ची सेवा हो सकती है । जड़ क्रिया, गच्छ के भेद, निरपेक्ष वचन और सूत्र से विपरीत भाषण में यदि साधक फँस जाय तो उसकी समस्त क्रिया धूल पर लीपने जैसी व्यर्थ है।
श्री धर्मनाथ जिन स्तवन में आनंदघनजी कहते हैं कि मेरी जिनेश्वर के साथ अटूट प्रीति है । मैं रात-दिन उनके गुणगान में मस्त हूँ | पूरी दुनिया धर्म की बात करती है परन्तु सच्चे धर्म को जानती नहीं । जो धर्म जिनेश्वर के चरणों की सेवा करता है वह मनुष्यकर्म से अलिप्त रहता है और उससे सद्धर्म की प्राप्ति उसे होती है । जो पुद्गल को पहचानता है और आत्मा को नहीं जानता, वह भला धर्म के बारे में कहाँ से जाने ? यदि वह ज्ञानरूपी सुरमे का अंजन करे तभी उसे अनमोल खजाना दिख सकता है । मन जितना दौड़ सकता था उतना मैं दौड़ा परन्तु अपने अंतर को पहचानना मैं भूल गया । ज्ञानरूपी प्रकाश के बिना अंधे के पीछे अंधा चलता है, ऐसी स्थिति हो गयी है । इसलिए भँवरे की तरह जगह-जगह फिरने के बदले सच्चा ज्ञान प्राप्त करके स्थिर चित्त से प्रभुपूजन करने का उपदेश आनंदघनजी ने दिया है।
श्री शांतिनाथ प्रभु से कवि आनंदघनने शांति-स्वरूप जानने की जिज्ञासा प्रकट की है । यहाँ कवि ने अति संक्षेप में शांतिस्वरूप का वर्णन किया है । आगमों (धर्मग्रंथों) में शांतिस्वरूप का वर्णन विस्तार से किया गया है । कवि आनंदघन यहाँ मात्र नौ गाथा में (तीसरी से ग्यारहवीं गाथा में) यह वर्णन करते हैं । शांति को खोजता मनुष्य अज्ञान के कारण अशांति से पीड़ित है, उस स्थिति में शांतिस्वरूप की पहली शर्त शास्त्रवचनों पर श्रद्धा रखना है । प्रभु द्वारा कथित छ: द्रव्यों, नौ तत्त्वों** और अट्ठारह पापस्थानकों का विचार उसे अच्छी तरह से मालूम होना चाहिए । शांतिस्वरूप-प्राप्ति की दूसरी शर्त आगम को धारण करने वाले योग्य गुरु को प्राप्त करना है । शुद्ध देव, शुद्ध गुरु और शुद्ध धर्म अपनाये तो अपने आप आत्मा से सात्त्विकता की खुश्बू पैदा होगी ही । शांतिनाथ के चरित्र का वर्णन करते हुए आनंदघन कहते हैं कि वह दृढ़ आस्थावान होना चाहिए । भिन्न-भिन्न दृष्टिबिंदुओं को समझनेवाला और समझानेवाला होना चाहिए । दुर्जनों की संगत त्यागकर अच्छे * जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ** जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org