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परम्परा और आनंदघन : 39 जो प्रथम दृष्टि में विरोधी प्रतीत होती है, उनमें एकसाथ निवास करती है । सर्वजनों की कल्याण करनेवाली करुणा है तो कर्म के समूह को काटनेवाली तीक्ष्णता है और इससे भी अधिक उदासीनता निहित है । त्रिभुवन के स्वामी होने के बावजूद वह निग्रंथ है । ऐसे परमात्मा का विचित्र और आश्चर्यजनक गुणों से युक्त चरित्र का वर्णन करते हुए आनंदघन ने कुशलता से परमात्मा की महत्ता प्रकट की है।
ऐसे विराट परमात्मा की प्राप्ति के लिए अंतर में अध्यात्म की स्थिति धारण करना होता है। श्री श्रेयांसनाथ जिन के ग्यारहवें स्तवन में आनंदघनजी सच्चे आध्यात्मिक की पहचान कराते हैं । यह आध्यात्मिक उस आत्मस्वरूप में विहार करके अहर्निश आत्मतत्त्व का चिन्तन करता है । उसमें निरन्तर आत्मस्वरूप को साधने की प्रक्रिया चलती होती है । नाम अध्यात्म, स्थापना अध्यात्म और द्रव्य अध्यात्म* का कवि विरोध करता है । कोई अध्यात्म को लगातार रटता रहे, कोई अध्यात्म की स्थापना करता फिरे और कोई द्रव्य आध्यात्मिक क्रिया कर्म करे लेकिन आत्मा को न जाने यह कैसे हो सकता है ? इन तीनों का विरोध करके आनंदघन भाव अध्यात्म का आदर करते हैं । जहाँ सिर्फ आत्मस्वरूप का ही ध्यान लगाया जाता है उसे ही सच्चा अध्यात्मी समझिए ।
श्री वासुपूज्य जिन स्तवन में कवि आत्मा को भलीभाँति पहचानकर पुद्गलों के साथ का क्षणिक और अस्थायी सम्बन्ध छोड़कर अनन्त ज्ञान, दर्शन और चारित्र्य में लीन होकर आत्मानंद का अनुभव करने का निर्देश करते है । इस बारहवें स्तवन में अनेक अलग-अलग दृष्टिबिन्दुओं से आत्मविचार किया गया है । विषयकषाय को मंद करना, परिणति की निर्मलता रखना और इस तरह निष्कर्मी का आदर्श रखने को कवि कहते हैं । मनुष्य के रूप और उसके आत्मज्ञान के बीच कोई सम्बन्ध नहीं होता । आनंदघनजी तो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो सच्चा आत्मज्ञानी है वही श्रमण है, बाकी सभी तो सिर्फ वेशधारी हैं ।
अध्यात्ममार्ग के गूढ़ रहस्यों को एक के बाद एक प्रकट करनेवाले आनंदघनजी श्री विमलजिन स्तवन में प्रभुभक्ति की मस्ती विखेरते हैं । तत्त्वज्ञान की जगह परमात्मा की भक्ति का वर्णन करते हुए कवि का हृदय हर्षोल्लास से भर जाता है । प्रभु के साथ एकता स्थापित हो तब कैसे अनुपम आनंद की प्राप्ति होती है । जिस मस्ती का गान आनंदघन के पदों में मिलता है उसी मस्ती का संकेत इस स्तवन में मिलता है । जिनवर के दर्शन होते ही दुःख और दुर्भाग्य दूर हो गया और आत्मिक सुख तथा अविनाशी सम्पत्ति (वैभव) का मिलाप हुआ । स्वयं को समर्थ स्वामी मिलने के कारण आनंद का पार नहीं । उसके दर्शनमात्र से सारे संशय मिट जाते * किसी व्यक्ति का वस्तु का या इच्छिक नाम यदि अध्यात्म हैं तो उसे नाम अधअयात्म कहते हैं । अध्यात्म के प्रतीक किसी व्यक्ति या वस्तु के चित्र या मूर्ति को स्थापना अध्यात्म कहते हैं । कोई व्यक्ति वास्तव में आध्यात्मिक हो ओर वैसा ही जीवन जीना उसका स्वभाव हो तो
उसके अध्यात्म को द्रव्य अध्यात्म कहते हैं । * कोई व्यक्ति तत्काल आध्यात्मिक जीवन जी रहा हो उसके उस वर्तमानकालिक अध्यात्म
का भाव अध्यात्म कहते हैं ।
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