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36 : आनंदघन स्वयंस्फुरित झरना किस तरह प्रकट होता है ? आनंदघन के स्तवनों का प्रारंभ ज्ञान, भक्ति और योग की अनुपम त्रिवेणी से होता है । वे हमें यकायक साधना की गहराई में नहीं ले जाते; अपितु, क्रमश: इसके एक से बढ़कर एक बढ़िया उन्नत सोपानों को दर्शाते हैं । आनंदघन ने प्रारंभ किया है भौतिक प्रेम और प्रभु प्रेम के बीच अन्तर बताकर, भौतिक प्रेम के संदर्भ में उच्च आध्यात्मिक प्रेम की विशेषता दर्शाकर । इसके बावजूद ऋषभ जिनेश्वर को वे “प्रीतम माहरा" कहते हैं परन्तु कहीं भी इस 'प्रीतम' के प्रति भावुकता का पागलपन नहीं दिखाया है । उसके सामने प्रणय का लाड़ भरा उद्गार निकाला नहीं । यह प्रीति तो गौरवशाली प्रीति है, यह किसी लाचार की शरणागति नहीं है । यह प्रीति तो आत्मखोज के अन्त में मिली एकलीनता है, यह कोई सोपाधिक प्रीति नहीं है ।
इसीलिए योगी आनंदघन बाह्य प्रीति का विरोध करते हैं । सांसारिक प्रेम तो प्रीति की बात करता है । उसमें पुद्गल याने शरीर का आकर्षण होता है । जबकि आनंदघन तो आत्मा की विशुद्ध स्थिति से प्राप्त होनेवाले प्रभुप्रेम की चाह करते हैं । इसके लिए बाह्य तप या लीला के लक्ष्य स्वरूप की निन्दा करते हैं । यहाँ ध्यान, ध्येय और ध्याता एकरूप हो जायें ऐसे भावपूजन की बात है । मन में कहीं कपट न हो, मन में कहीं क्लेश न हो, आत्मा में कहीं भी विकार न हो ऐसी शुद्ध चेतना का आत्मसमर्पण है । ऐसी पूजा का फल ही है चित्त की शांति । ऐसी चित्तशांति की प्राप्ति के मार्ग का कवि निर्देश करता है । इस तरह प्रथम स्तवन में परमात्मप्रीति का दर्शन आनंदघन ने वर्णित किया है।
प्रथम स्तवन में स्थूलप्रीति और आध्यात्मिक प्रीति के बीच अन्तर दिखाकर प्रभु की स्थायी प्रीति की महिमा का गान हुआ है । अब इस प्रीति के मार्ग द्वारा आगे बढ़ना है । उस दिव्यमार्ग का अनुसरण करना है और उसका वर्णन आनंदघन दूसरे स्तवन में करते हैं । इस मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने से भी कठिन है, क्योंकि सत्य का मार्ग कभी सरल नहीं होता । इस मार्ग पर चलने के लिए अजितनाथ जिनेश्वर के पंथ को निहारते हैं, तब पता चलता है कि जिन आंतरशत्रुओं से मैं पीड़ित हूँ उसे जिनेश्वर ने जीत लिया है । जिस रागद्वेष* को भगवान ने वश में करके अंकुश में रखा है वही रागद्वेष अपने को अंकुश में रखता है । ऐसा प्रभु का पंथ चर्मचक्षु से कैसे देखा जा सकता है । इसके लिए तो रहस्य को परखनेवाले दिव्य-चक्षु चाहिए । इस पंथ पर चलने के लिए पूर्व-परम्परा की आवश्यकता है लेकिन वह भी सही मार्गदर्शक नहीं है । वाद और विवाद के चक्र में तर्क गोल-गोल घूमा करता है । इस तरह स्थूल-चक्षु, पुरुष-परंपरा और तर्क-विचार प्रभु के मार्ग को प्रशस्त नहीं करते । आगमदृष्टि से विचार करें तो कहीं भी खड़े रहने की जगह नहीं है । अन्तत: कालोपलब्धि के पश्चात् पंथ निहारने के परिणाम की आशा रखकर उसका अवलम्बन करते हैं । इस दूसरे स्तवन में कवि दिखाता है कि मार्ग पर चलनेवाले को वाद-विवाद या परंपरा के स्थान पर आत्मदृष्टि से आगे * इष्ट पदार्थों के प्रति रति भाव को राग कहते हैं । यह शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार
का होता है। अनिष्ट के प्रति अप्रीति रखना भी मोह का ही एक भेद हैं जिसे द्वेष कहते हैं।
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