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परम्परा और आनंदघन: 37 बढ़ना चाहिए; तभी उसकी परमात्म मार्गदर्शन की अभिलाषा सिद्ध होगी ।
पहले स्तवन में परमात्मा के साथ प्रीत स्थापित की दूसरे स्तवन में उसका मार्ग निहारा और अब इस परमात्मा की सेवा का रहस्य जानेंगे । परमात्मा की सेवा के लिए शुद्धि की सज्जता विकसित करना चाहिए । कवि आनंदघन मात्र तीन शब्दों में उस सज्जता को प्रदर्शित करते हैं । उन्होंने अभय, अद्वेष और अखेद धारण करने को कहते हैं । और फिर भय, द्वेष और खेद की सूक्ष्म समझ देते हैं । विचारों का अस्थायीपन वही भय है, अरुचि ही द्वेष है और प्रभु सेवा के प्रति प्रमाद ही खेद है । इस तरह अभय, अद्वेष और अखेद से भूमिका शुद्धि होती है, तब साधक योग के रहस्यों के साथ मिलकर आगे बढ़ता है । जब वह परमपुद्गल परावर्त * में आता है, तीसरा करण करता है और उसकी भवस्थिति परिपक्व अवस्था को प्राप्त करती है तब मोक्ष मार्ग के प्रति उसकी दृष्टि खुल जाती है । पाप का नाश करने वाले साधु पुरुष का परिचय होता है । अशुभ वृत्तियों का क्षय होता है और उसके भीतर नयवाद की सही समझ पैदा होती है । ऐसी भूमिका तैयार होने के बाद ही अगम्य और अनुपम प्रभु सेवा संभव है ।
जैन दर्शन अनेकांत दर्शन है । एकांत दर्शन से तो आंशिक सत्य प्राप्त होता है । अनेकांत दर्शन से पूर्ण सत्यदर्शन प्राप्त होता है । यहाँ परमात्मा का दर्शन अर्थात् सम्यक दर्शन की महत्ता आनंदघनजी ने गाई है । इस सम्यक्दर्शन के बीच बहुत से अवरोध खड़े हैं । प्रत्येक मतावलम्बी अपने ही मत को श्रेष्ठ बताता है । इससे भी आगे दूसरे का मत बिल्कुल तुच्छ है ऐसा आग्रहपूर्वक कहते हैं । कहीं भी निष्पक्ष या विशुद्ध दृष्टि देखने को नहीं मिलती । सभी जगह मतांधता दिखाई देती है और ऐसे समय में प्रभुदर्शन का पक्का निर्णय कहाँ से हो ? बंधन में पड़ा हुआ अंधा मनुष्य रवि-शशि के रूप को कैसे बता सकता है ? तदुपरांत परमात्मा के दर्शन में घातीकर्मरूपी पर्वत आड़े आते हैं और इसलिए कवि आनंदघन परमात्मा के दर्शन की छटपटाहट और उसमें आनेवाले अवरोधों का बयान करते हुए कहते हैं : " दरसन दरसन रटतो जे फिरूँ ते रनि रोज़ समान, जेहने पिपासा हो अमृतपाननी किम भाजे विषपान ।”
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दर्शन की उत्कंठा कितनी अधिक तीव्रता से व्यक्त हुई है ! प्यास तो ऐसी है कि जैसे रोज को गरमी में पानी की प्यास लगे और 'पानी' 'पानी' चिल्लाता हुआ जगह-जगह फिरने लगे । स्वयं परमात्म-दर्शन के लिए छटपटाता है, तड़पता है परन्तु परिस्थिति कैसी है ? इच्छा है अमृतपान की और मिलता है विष का कटोरा !
परमात्म-दर्शन के लिए आत्मसमर्पण चाहिए; जो ममत्व और अपनेपन से अलग नहीं होता वह उसके सच्चे स्वरूप को कहाँ से पा सकता है ? इसीलिए पाँचवे स्तवन में आनंदघन भगवान सुमतिनाथ के चरणों में आत्मसमर्पण करने को कहते
* जीव जिन पुद्गलों को ग्रहण कर कर्म फल भोगे और पुनः उन्हीं का ग्रहण करे इस प्रक्रिया को पुद्गल परावर्त कहते हैं ।
* केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यंकत्व, चरित्र और वीर्यरूप जो अनेक भेद भिन्न जीव गुण हैं। उनके विरोधी अर्थात् घातक कर्म घातीकर्म कहलाते हैं।
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