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________________ परम्परा और आनंदघन: 35 "आत में आतम उत्तम, दिव्य प्रगट कियो जी, श्री जिनलाभे कुंथु, आवत आदर दीयो जी ।” उपाध्याय श्री यशोविजयजी श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन में कहते हैं : " आज सफल दिन मुज तणो, मुनिसुव्रत दीठा; भागी ते भावठ भव तणी, दिवस दुरितना नीठा ।” इसी प्रकार समतारस का पान करके मौज उड़ाते हुए चिदानंदजी कहते हैं कि अब तो हरि, हर, ब्रह्म या इन्द्र की सिद्धि भी सामान्य लगती है । कवि कहता है “हम मगन भये प्रभु ध्यान में, हम मगन भये प्रभु ध्यान में, विसर गई दुविधा तन-मन की, अरिरा - सुत-गुण-गान में ।” अध्यात्मयोगी आनंदघन भी विमलजिनेश्वर के दर्शन पाकर दुःख और दुर्भाग्य दूर होने और सुख-सम्पत्ति से मिलन होने का आनंद प्रकट करते हैं और इससे भी विशेष श्री धर्मजिन स्तवन में तो कवि प्रभुभक्ति की ऐसी मस्ती में हैं : : “धरम जिणेसर गावं रंगस्युं भंग म पड़ज्यो हो प्रीत्य, बीजो मनमंदिर आंणुं नहीं, ए अम्ह कुलवट रीति । " ( स्तवन : 15, गाथा : 1) स्तवनों में आत्मनिन्दा, प्रभुप्रशस्ति जैसे विषय सर्वसामान्य हो गये थे तब इन स्तवनों के प्रकार में अध्यात्मभाव की चर्चा करने की विलक्षण रीत आनंदघन जैसे साधक अपनाते हैं । श्री हेमचन्द्राचार्य ने " सकलार्हतस्तवन" में जैन दर्शन के सिद्धांतों की चर्चा की है । मोहनविजयजी ( लटकाला ) और चिदानंदजी ने अपने स्तवनों में तात्त्विक चर्चा की है । स्तवनों की सामान्य परिपाटी से हटकर आनंदघनजी स्तवनों की नवीन परंपरा की शुरूआत करते दिखाई देते हैं । उनके स्तवनों में रूढ़ भाव नहीं हैं, परम्परागत गुणवर्णन नहीं हैं, उपमा, दृष्टांत आदि अलंकारों की चमत्कृति नहीं है परन्तु इन स्तवनों में सत्यशोधक, आत्मगवेषणा करनेवाले आत्मज्ञानी की आत्मखोज का बयान है । अंतर में हिलोरें लेती भक्ति की अनुभूति के साथ-साथ साधक के अनुभवों में से जाने कितना नवनीत अपने आप निकलता आता है । इसमें ज्ञान की गहनता है, भक्ति की मृदुता है, अध्यात्म की गूढ़ता है और इससे भी विशेष है कि यह सब सहजरूप से व्यक्त हुई है । इसी कारण ज्ञानसार जैसे विद्वान ने छत्तीस - छत्तीस वर्ष तक 'आनंदघन बावीसी' पर चिन्तन-मनन करने के बाद 'बालावबोध' लिखा तब उन्हें आनंदघन का आशय 'अतिगंभीर' लगा था । उन्होंने आनंदघन की रचनाओं को ‘टकसाल' अर्थात् नकद सत्य का मूल्यवान उपदेश देनेवाली कहा है । आध्यात्मिक उन्नति का बोध Jain Education International योग और अध्यात्म के आत्मसात् किये हुए रहस्य किस प्रकार प्रकट हों ? समर्थ योगी, महान अध्यात्मज्ञानी और आगम के अभ्यासी साधक की वाणी का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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