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परम्परा और आनंदघन: 31 प्रकार है तीर्थंकर का गुणकीर्तनरूप स्तोत्र । इस स्तोत्र के अलग-अलग प्रकार देखने को मिलते हैं । नामस्तोत्र, रूपस्तोत्र, कर्मस्तोत्र, गुणस्तोत्र और आशीर्वादात्मक स्तोत्र - इस प्रकार पाँच भेद किये गए हैं । जबकि कई विद्वान तीन प्रकार ही मानते हैं: आराधनास्तोत्र, अर्चनास्तोत्र और प्रार्थनास्तोत्र । इसी प्रकार द्रव्य, कर्म, विधि और अभिजन - इस प्रकार भी स्तोत्र के चार विभाग किये गए हैं ।
इन स्तोत्रों में प्रभु गुणकीर्तन होता है । जैन धर्म में जिन की स्तुति अन्य धर्मों में प्राप्त प्रस्तुति जैसी नहीं है । हिन्दू आदि धर्मों में जिस प्रकार ईश्वर लोगों का कल्याण अपने वरदानादि से करते हैं वैसे तीर्थंकर नहीं करते वे जीवों से अपने कर्म का नाश स्वयं अपनी तपस्यादि चरित्र पालन से करके परम श्रेय मोक्ष को पाने का उपदेश देते हैं । हिन्दू धर्म के भक्तिमार्ग में जिस प्रकार ईश्वर जगत के नाथ हैं, वे समस्त इच्छाओं को पूरी करने वाले हैं और सम्पूर्ण जगत ईश्वर की मंगलमय सर्जना है, इस प्रकारकी अवधारणा जैन धर्म के आराध्य तीर्थंकरों के बारे में नहीं है । फिर भी भक्तिमार्ग के प्रभाव के कारण स्तवनों में ईश्वरकृपा और ईश्वर को नाथ या प्रीतम मानने की वृत्ति देखने को मिलती है । जैन धर्म में तीर्थंकरों के शरण में जाने की बात नहीं हैं, लेकिन उनके मार्ग पर चलने के लिए तीर्थंकर पर आस्था होनी चाहिए । परन्तु स्तवनसाहित्य में ऐसी ईश्वरशरण की बातें देखने को मिलती हैं । इस प्रकार स्तवनों में भक्ति की प्रधानता, ईश्वरकृपा की याचना, ईश्वर की शरणागति, दास्यभाव से मुक्ति की प्रार्थना और प्रभु को स्वामी मानने की जो भावना देखने को मिलती है, वह हिन्दू धर्म के भक्तिमार्ग के प्रभाव के कारण आयी हुई है ।
स्तोत्ररचना की इस जैन परम्परा का प्रारंभ संस्कृत में सिद्धसेन दिवाकर ( विक्रम की पाँचवी सदी) से हुआ देखने को मिलता है । पंडित सुखलालजी सिद्धसेन दिवाकर को 'आद्य जैन तार्किक, आद्य जैन कवि, आद्य जैन स्तुतिकार, आद्य जैनवादी, आद्य जैन दार्शनिक और आद्य सर्व दर्शन संग्राहक' मानते हैं 12
इसके बाद स्वामी समन्तभद्र ने जैन साहित्य में अनेक नवीन परम्पराओं का मार्ग प्रशस्त किया । इन्होंने चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की रचना की और इसके परिणामस्वरूप जैन साहित्य में स्तोत्र रचना की एक नई परंपरा की शुरूआत हुई । स्वामी समन्तभद्र ने 'युक्त्यनुशासन' स्तोत्र में चौंसठ पद्यों में भगवान महावीर की स्तुति करने के साथ-साथ वैशेषिक, बौद्ध, चार्वाक इत्यादि दर्शनों की समीक्षा करके अनेकांतवाद का भी वर्णन किया । स्वामी समन्तभद्र के 'आप्तमीमांसा' स्तोत्र में एकांतवाद का निरसन किया गया है । इसके बाद विक्रम की छठी सदी में आचार्य देव नंदि ने 'सिद्धिप्रियस्तोत्र' की रचना की, जिसमें पदान्त यमक और चक्रबंध का प्रयोग किया । आठवीं सदी में श्री मानतुंगसूरि ने अपनी रचनाओं में मंत्र, तंत्र, यंत्र जैसे शास्त्रीय विषयों की रचना की उनका "भक्तामर स्तोत्र" अत्यन्त लोकप्रिय हुआ । श्री हरिभद्रसूरि (ई. स. 701-771) और बप्पिभट्टसूरि (ई. स. 744-809) ने भी स्तोत्र साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया । विक्रम की ग्यारहवीं सदी में श्री जम्बुमुनि ने “जिनशतक" की रचना की और उसमें स्रग्धरा छंद का एवं शब्दालंकारों का प्रयोग किया । श्री शोभनमुनि ( दशवीं सदी का उत्तरार्ध ) ने
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