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परम्परा और आनंदघन
स्तवन के प्रकार "उत्तराध्ययन सूत्र" के उन्तीसवें अध्ययन में शिष्य प्रश्न पूछता है :
__चउवीसत्थएणं भंते । जीवे किं जणयइ ?" "हे भगवंत ! चतुर्विंशति-स्तव करने से जीव किस लोभ को प्राप्त करता है ?" इसके उत्तर में भगवान कहते हैं :
"चउवीसत्थएणं दंसण-विसोहिं जणयइ ।" __"हे शिष्य ! चतुर्विंशति-स्तव से जीव दर्शन की विशुद्धि प्राप्त करता है ।" इस 'दर्शन' संज्ञा विषयक की स्पष्टता करते हुए आलोचक कहते हैं कि दर्शन का अर्थ यहाँ सम्यक्त्व - सम्यग्दृष्टि ग्रहण करने से है ।
इस प्रकार चतुर्विंशति - स्तव से तात्कालिक फल सम्यक्त्व की प्राप्ति का मिलता है। इस सम्यक्दर्शन के बिना सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चरित्र प्रकट नहीं होता और सम्यक्चारित्र्य के बिना मुक्ति नहीं मिलती ।
जैन परंपरा में प्रभुपूजन के लिए स्तुति, स्तवन, सज्झाय जैसे काव्य-प्रकार प्रचलित हैं । स्तवन के लिए स्तोत्र, स्तव और संस्तव जैसे संस्कृत शब्द पाये जाते हैं, जिन्हें स्तवन के पर्यायवाची माने जा सकते हैं । इस स्तवन का हेतु अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र में हुए चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना है । ये तीर्थंकर समान शक्ति
और प्रभाव रखने वाले हैं । वे चौतीस अतिशयों से युक्त हैं | चौबीस तीर्थंकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से भिन्न होने के बावजूद गुणों में समान हैं । वे अट्ठारह दूषणों से रहित उपशमरस से भरपूर और सम्पूर्णानंदमय हैं। ऐसे तीर्थंकर के स्तवनों को विशुद्ध अंत:करण से, भावपूर्वक गाने से सम्यक्त्व की शुद्धि का शीघ्र फल और मोक्ष का फल मिलता है । जीव दर्शनबोधि, ज्ञानबोधि और चारित्र्यबोधि का लाभ लेकर स्तवनरूप "भावमंगल" से मुक्ति का महासुख पाता है ।
स्तोत्र में जिनेश्वरदेव के विशिष्ट सद्गुणों का कीर्तन किया गया होता है। दो प्रकार की स्तोत्र रचना मिलती है । एक प्रकार है नमस्काररूप स्तोत्र और दूसरा 'दुराभिनिवेशरहित पदार्थों का श्रद्धान अथवा स्वात्म प्रत्यक्षपूर्वक स्व पर भेद का ___ कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक सम्यकत्व (सम्यक्दर्शन) कहलाता है ।
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