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32 : आनंदघन
" स्तुति चतुर्विंशतिका” की यमकमय रचना की । आचार्य हेमचंद्राचार्य ( ई. स. 1089-1173) ने पूर्ववर्ती आचार्यों की स्तोत्ररचनापद्धति का अवलम्बन तो लिया परन्तु उसमें उनके अगाध ज्ञान का योग होने से इन स्तोत्रों में चिंतन को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला । इसके बाद अलंकारयुक्त स्तोत्र रचनाएँ होने लगी और जिनप्रभुसूरि ( विक्रम की तेरहवीं सदी) ने भिन्न-भिन्न अलंकार और छंदोंवाले सात सौ स्तोत्रों की रचना की । श्री कुलमंडनसूरि, जयतिलकसूरि, जयकीर्तिसूरि आदि साधुओं ने चित्रकाव्यमय रचनाएँ की । श्री सोमसुंदरसूरि, रत्नशेखरसूरि और समयसुंदरगणि ने भी महत्त्वपूर्ण स्तोत्र रचनाएँ की । इस प्रकार जैन परंपरा में समृद्ध स्तोत्रसाहित्य की रचनाएँ हुई देखने को मिलती हैं । 3
इन स्तोत्रसाहित्य में प्रादेशिक भाषा में स्तवन की परंपरा का उद्भव हुआ है । प्रारंभ में इन स्तवनों में सरल संक्षिप्त और गुणपरक स्तुति ही मिलती थी परन्तु धीरेधीरे इसका विकास होने पर इसमें अन्य विषयों का समावेश होने लगा । इन स्तवनों में वैयाकरणों ने व्याकरण के विशिष्ट प्रयोगों के द्वारा स्तुति की। यानिकों ने मंत्रगर्भित स्तुतियों की रचनाएँ की । इसके बाद तो तरह-तरह के व्यंजन और फलफलादि को आलम्बन बनाकर स्तुतियों की रचनाएँ की गई । इन स्तवनों में कहीं-कहीं तो प्रभु के गुणों का सिर्फ कीर्तन होता है । जैसे कि श्री जिनमहेन्द्रसूरि तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ जिन स्तवन में प्रभु के गुणों को दर्शाते हुए कहते हैं : “जय जय जगदाधार, सुविधि जिणंदा रे; सारै सुर नर सेव अधिक आनंदा रै; सुर तरुनौ अवतार, सिव सुखकंदा रे; समर्या पूरइ काज, काटै फंदा रे; पाप विदारण स्यांमं, कोटि जिणंदा रे; तुज गुण अंत न पार कहत सुरिंदा रे; चाहे तुझ पद सेव, महेन्द्र मुणिंदा रे.”
ऐसे स्तवनों में तीर्थंकरों का गुण-कीर्तन होता है और कई बार तो ये गुणानुवाद मात्र विशेषणों से ही किये गये होते हैं । योगी आनंदघनजी ने भी सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वजिन स्तवन का ऐसा ही गुण-कीर्तन करते हुए मात्र विशेषणों से तीर्थंकर की महिमा गाई है।
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" शिवशंकर जगदीसरु चिदानंद भगवान,
जिन अरिहा तित्थंकरू ज्योति सरूप समान, ललना"
“ अलख निरंजण वच्छलू, सकल जंतू विसराम
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अभयदान दाता सदा, पूरण आतमराम"
(IT2IT : 3, 4) तुच्छ मनुष्य अपने उद्धार के लिए और सांसारिक आवागमन के चक्कर से मुक्ति पाने के लिए तीर्थंकर देव से दर्दभरी विनती करते या गिड़गिडाते हों, ऐसे स्तवन मिलते हैं । इन स्तवनों में प्रभु को परमस्थान, परमज्ञान और परम आत्मरूप मानकर जीवविनती करता है । श्री खुशालमुनि अपने श्री नमिजिन स्तवन में अपना
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