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________________ आनंदघन का पद-वैभव : 21 (लुच्ची) अभिमानी और मायारूप है । कुमति में आशा, तृष्णा लज्जा और क्रोध हैं, जब कि सुमति शांति, दम और संतोष से शोभायमान है । इस कुमति में आत्मा की मूल कला के लिए कलंकरूप पाप है, जबकि अपने मंदिर में आनंदघन सुमति की नित्य राह देख रहे हैं10 अत: ऐसी कुमति को छोड़कर मेरे पास आ जाओ। . चेतन को जाग्रत् करने के लिए सुमति उसे अपने सच्चे घर का ज्ञान कराती हुई कहती है - 'चेतन, शुद्धातमकुं ध्यावो, पर परचे धामधूम सदाई, निज परचे सुख पावो, चेतन । शुद्धातमकुं ध्यावो. १11 यह चेतन अर्थात् आत्मा कैसी है ? जिस प्रकार अभिनेता अभिनय करते समय अपने पात्र से उसका इतना तादात्म्य हो जाता है कि वह अपने 'स्व' को भूल जाता है और अभिनय के पश्चात् वह अपने मूल (स्व) को समझ पाता है । इसी प्रकार कुमति के कारण चेतन को मानसिक भ्रमणा होती है । बाजी भी वह लगाती है और बाजीगर भी वही है । आसक्ति और अनासक्ति करने वाली वही हैं । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ही हमारी मित्र है और आत्मा ही हमारी शत्रु हैं । दुनिया के मायाजाल में फँसी हुई आत्मा कुमति के संग रहती हैं, परंतु निज स्वरूप का ज्ञान होने पर उसे आनंदस्वरूप आत्मा का अनुभव होता है । आनंदघन कहते हैं कि - 'देखो एक अपरव खेला, आप ही बाजी, आप ही बाजीगर, आप गुरु आप चेला.'12 शुद्ध चेतन की जागृति के समय कैसा भावानुभव होता है । ऐसे अनुभवों का आलेखन जिन पदों में हुआ है उन पदों में कवि आनंदघन के भावउच्छलन की प्रतीति होती हैं । चौतरफा व्याप्त भ्रमरूपी अंधकार का साम्राज्य मिट जाता है । आलोक फैल जाता है । निर्मल हृदयकमल खिलता है और आत्मभूमि पर विषयरूपी चंद्र की कांति निस्तेज हो जाती हैं । उसे मात्र आनंदघन ही अपना वल्लभ लगता है । इस ज्ञानभानु के उदय होने पर अत्यंत मोहक और आकर्षक लगने वाले जगत के राग रसहीन प्रतीत होते हैं । शुद्ध चेतना का विरहकाल पूर्ण होने पर उत्पन्न होने वाली आत्मविभूति के प्रागट्य की दुहाई देते हुए कवि कहता है - 'मेरे घट ग्यान भान भयो भोर. चेतन चकवा चेतना चकवी, भागो विरहको सोर.13 अनादिकाल से छाई हुई अज्ञानरूपी निद्रा स्वत: दूर हो गई और हृदयमंदिर में अनुभवज्ञान का प्रकाश होने से 'सहज सुज्योति स्वरुप' अनुभवज्ञान प्रकट हुआ है । कवि अपने हृदय में जगी हुई अनुभवजन्य प्रीति की बात सुहागन से करता है । इस अकथ कहानी का वर्णन करते हुए आनंदघन कहते हैं - 'सुहागण जागी अनुभव प्रीत. निन्द अनादि अग्यान की, मिट गई निज रीत. हा ट मंदिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप, अ प पराई आप ही, ठानत वस्तु अनूप. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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