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22 : आनंदघन
कहाँ दिखावू औरकुं, कहां समजाउं भोर, तीर अचूक है प्रेमका, लागे सो रहे ठोर. नादविलुद्धो प्राणकुं, गिने न तृण मृग लोय, .
आनंदघन प्रभु प्रेमकी, अकथ कहानी कोय.'14 एक अन्य स्थल पर आनंदघन कहते हैं कि - 'तुम ज्ञान विभो फूली वसंत, मनमधुकर ही सुखसों वसंत.' 15
हे प्रभु ! तुम्हारी ज्ञानरूपी वसंत ऋतु पूर्ण वैभव से खिली हैं, जिससे उसमें मनरूपी भ्रमर सुख से निवास करता है । वैराग्य रुपी दिन बड़ा होता जाता है और दुर्गति रूपी रात्रि धीरे-धीरे छोटी होती जाती हैं । सुरुचि की लता विकसित होकर फलवती बनती हैं । वसंतऋतु में कोयल का सुर अतिमधुर होता है, उसी प्रकार भाषा मनमधुर रूप धारण करती हैं और समग्र सृष्टि आनंदस्वरूप हो गई हैं।
आनंदघन के पदों में आध्यात्मिक यात्रा का आलेखन विरह-मिलन के सुंदर भावों में व्यक्त हुआ है । अध्यात्म के शिखर पर पद्मासन लगाकर बैठे हुए आनंदघन ने अपने पदों में योग की परिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया है। उन्होंने योगसाधना से देह को देवल बनाने की बात की हैं । योग विषयक पदों में उन्होंने योग द्वारा आत्मभाव और समाधि प्राप्ति का मार्ग बताया है । जैन दृष्टि के अनुसार योग की व्याख्या है - 'युज्यते इति योगः' साध्य के साथ चेतन को जोड़ दे वह योग । योगमार्ग के आराधक के राग-द्वेष मंद होते जाते हैं और स्वदेह के प्रति राग और अन्य आत्मा के प्रति द्वेष कम करना है तथा आत्मा में स्थिर करना है । उसका लक्ष्य तो आत्मा को देह से अलग करके आत्मभावना में स्थिर करना है । रेचक, पूरक, कुंभक आदि क्रियाओं द्वारा मनइन्द्रिय की जय कर के आत्मतत्त्व का प्राथमिक अनुभव पाना है और फिर उसमें स्थिरता लानी है । आनंदघन के पदों में तन रूपी मठ में सोये हुई आत्मा को जाग्रत् करने की बात है । उन्होंने छठे पद में तो समग्र योगप्रक्रिया का निरूपण किया है । जबकि अन्यत्र वे कहते हैं -
'अवध क्या सोवे तन मठ में, जाग विलोकन घट में. तन मठ की परतीत न कीजें, ढहि परे एक पल में,
हलचल मेटि खबर ले घट की, चिह्न रमतां जल में.16
आनंदघनजी की कुछ ऐसी ही योग-मस्त दशा का वर्णन उनके 'अवधू सो जागी गुरु मेरा'17 पद में दृष्टिगत होता है । यहाँ वे एक वृक्ष के द्वारा अपनी बात को समझाते हुए कहते हैं कि यह एक ऐसा वृक्ष है कि जिसकी न जड़ें हैं न छाया, न डालियाँ हैं न पत्ते, बिना फूल के ही उस पर फूल लगे हैं और उसका अमरफल आकाश से लगा हुआ है । यह वृक्ष अर्थात् चेतन । जो अनादि है । वह जड़ बिना ही ऊगा हुआ वृक्ष हैं । वह स्वतः खिला हुआ है । कवि कहता है कि इस वृक्ष पर दो पंखी बैठे हुए है । एक है गुरु और दूसरा है चेला । चेला समग्र दुनिया को चुन-चुनकर खाता है और गुरु निरंतर खेल खेलता है । आत्मराज नामक तरुवर पर सुमति और कुमति दो पंखी बैठे हैं । सुमति ऐसी प्रवृत्तियाँ करती हैं, कि जिस से आत्महित हो और गुरु-स्थान पर रहकर अंतर के खेल खेला करता है, जबकि शिष्य कुमति संसार
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