________________
कृतित्व : 15 रहती । आनंदघन के पद राजस्थानी भाषा में लिखे गये हैं, लेकिन उनके स्तवन गुजराती भाषा के विशिष्ट संस्पर्श से युक्त हैं । इन स्तवनों में नींव की भाषा तो राजस्थानी ही है, यह तो लिंग व्यत्यय 'ण' कार और 'ड' कार का उपयोग तथा 'ओ' कार के प्रयोग से स्पष्ट होता है । आनंदघन ने अपनी मातृभाषा में काव्यरचना प्रारंभ की हो और इस तरह पहले पदों की रचना हुई हो, यह संभव है । उसके बाद उन्होंने गुजरात-सौराष्ट्र में विहार किया उसके परिणाम स्वरूप उनकी भाषा में गुजराती का प्रभाव विशेष रूप से परिलक्षित होता है।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर हैं । संसारसागर को स्वयं पार करने और दूसरों को पार कराने के लिए जो धर्म की स्थापना करता है उसे तीर्थंकर कहते हैं । तीर्थम् (धर्म) करोति इति तीर्थंकर: । तीर्थंकर लोगों को अपने आचरण और उपदेश के द्वारा कल्याण का मार्ग दिखाते हैं । मनुष्य को स्वयं उस मार्ग पर चलना होता है । तीर्थंकर किसी को आशीर्वाद नहीं देते, क्योंकि सभी को अपने कर्मों का फल भोगना अनिवार्य है उसमें किसी के आशीर्वाद से कोई रियायत नहीं मिल सकती । उन्हीं कर्मों को क्षीण या क्षय करने के लिए तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट कल्याणमार्ग की आवश्यकता पड़ती है । चौबीस तीर्थंकर के नाम इस प्रकार हैं : ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्यस्वामी, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वर्धमान महावीर । चोबीस तीर्थंकर होने के कारण चौबीस स्तवन मिलते हैं । आनंदघन में चौबीस की जगह बाईस स्तवन मिलते हैं, संभवत: इसका कारण उन्होंने उत्तरावस्थामें इनकी रचना की होगी । सामान्यत: कोई भी स्तवनकार चौबीसी पूरी करता है । आनंदघन ने भी चौबीसी पूरी की होती परन्तु उनका देहविलय हो जाने से वह अधूरी रही हो, ऐसी पूरी संभावना है । इस तरह उनके अधिकतर पद जीवन के पूर्वकाल में रचे गये हों और स्तवन उत्तरकाल में रचे गये हों ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं पड़ती । सभी पदों को पूर्णत: लिन लेने के बाद ही स्तवनों की रचना की होगी ऐसा आत्यंतिक विधान भी नहीं किया जा सकता । कभी कभी स्तवनों की रचना करते समय बीच में किसी अनुभूति का उफान होने पर कोई छोटा सा पद भी रचा गया है । आनंदघन के स्तवनों और पदों में प्रकट होने वाली प्रतिभा को बिल्कुल भिन्न कर पाना संभव नहीं है । उनके पदों में भी जिनभक्ति का प्रवाह बहता है और उनके स्तवनों में भी पदों की उर्मि का अनुभव होता है । प्रणय की परिभाषा तो हम बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जिनस्तवन में भी देख सकते हैं । इस तरह से हम इतना ही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मुख्यत: उनके अधिकांश पद उनके पूर्व जीवन में और स्तवन उत्तरकाल में रचे गये होंगे।
आनंदघनजी के पद "आनंदघन बहोतरी" के रूप में प्रख्यात हैं । इस नाम से प्रतीत होता है कि आनंदघनजी ने ७२ पद लिने होंगे । लेकिन जैसे आनंदघनजी ने बाईस स्तवन लिखे हैं फिर भी वे आनंदघन चौबीसी के रूप में पहचाने जाते हैं उसी तरह यह संभव है कि आनंदघन बहोंतरी नाम भी बाद में दिया गया हो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org