________________
14: आनंदघन
थे इस अनुमान पर आधारित होने के कारण कितना विश्वसनीय हो सकता है, यह प्रश्न उपस्थित होता है ।
मुनिश्री जिनविजयजी ने प्रत्यक्ष मुलाकात में इस सन्दर्भ में कहा था कि आनंदघन बावीसी में जैन यति की प्रारंभिक दृष्टि दीखती है । इसमें उनकी धर्मनिष्ठा प्रकट होती है लेकिन बाद में उनकी दृष्टि व्यापक हुई, उसका प्रतिबिम्ब पदों में झलकता है 12 पदों और स्तवनों के वक्तव्य को देखते हुए यह मंतव्य तर्कयुक्त प्रतीत होता है, परन्तु उसके समर्थन में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है ।
श्री अगरचंदजी नाहटा भी मानते हैं कि स्तवन उनके अध्यात्म - अनुभव की प्राथमिक दशा में रचित और पद परिपक्व अवस्था उत्तरकाल में रचे गये प्रतीत होते हैं। पदों में वे सांप्रदायिकता से बहुत ऊँचे उठे हुए प्रतीत होते हैं, जो बात स्तवनों में नहीं हैं 13
आनंदघन सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति की ओर मुड़े ऐसा दिखाने के लिए स्तवनों को पहले रखते हैं और पदों को बाद में । वास्तव में आनंदघनजी के पदों में भी ऋषभ जिनेश्वर अरिहंत और जिनचरणों में मन लगाने की बात आती है । उसमें प्रभुप्रीति की एक प्रकार की तड़पन महसूस होती है, परन्तु ऐसे पद रचने की परंपरा जैन रचनाकारों में देखने को मिलती है । इसलिए सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति का क्रमिक विकास दिखाया जा सके इतना स्पष्ट भेद दोनों के बीच बता पाना मुश्किल है । इसी कारण वह मत स्वीकार्य नहीं है ।
श्री मोतीचंद कापड़िया मानते हैं कि आनंदघनजी ने आरंभ में पदों की रचना की थी और बाद में स्तवनों की रचना की थी । अपने इस अभिप्राय के लिए वे तीन प्रमाणों का समर्थन देते हैं । स्तवनों की भाषा, स्तवनों की विचार - प्रौढ़ता और चौबीस के बदले बाइस स्तवन हैं और दो स्तवन अधूरे हैं यह अवधेय है । उनके मतानुसार आनंदघनजी की मूलभाषा राजस्थानी थी । इसलिए उन पदों की रचना भाषा की दृष्टि अत्यन्त वेधक है जबकि बाद में रचे गए स्तवनों में गुजराती भाषा का अधिक स्पर्श है, परन्तु पदों जैसा भाषा-सामर्थ्य इनमें देखने को नहीं मिलता 14
आनंदघनजी के पदों में कोई अनुक्रम देखने को नहीं मिलता । प्रत्येक प्रति में पदों का क्रम अलग-अलग है । श्री मोतीचंद कापड़िया पदों की क्रमबद्धता के अभाव को भी एक प्रमाण के रूप में रखते हैं, लेकिन यह बहुत उपयुक्त नहीं है, क्योंकि आनंदघन के हाथों लिखी हुई कोई प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाई है । इसलिए बाद में लोगों को जो पद याद थे, उसे लिखा । इतना ही नहीं पद संग्रह की विविध हस्तप्रतियों में अन्य पद रचनाकारों की रचना के साथ साथ आनंदघन की भी कुछ रचनाएँ देखने को मिलती हैं । विशेष प्रचलित या कुछ चुने हुए पद ही दूसरे पदों के साथ सम्मिलित किये गए हों, ऐसा भी हुआ है । प्रत्येक तीर्थंकर के नामोल्लेख के साथ रचित स्तवनों में ऐसी क्रमबद्धता बनी रही यह स्वाभाविक है ।
भाषादृष्टि से सोचें तो आनंदघन का जन्मस्थान राजस्थान है । अपनी मातृभाषा पर व्यक्ति सहज ही प्रभुत्व रखता है । जब दूसरी भाषा में अपनी रचना करने का वह प्रयत्न करता है, तब उसकी मातृभाषा उसमें प्रतिबिम्बित हुए बिना नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org