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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क आगम कहते हैं। 03. मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणया गम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते येन स
आगमः। अर्थात् मर्यादापूर्वक या यथावस्थित रूप से पदार्थों का यथार्थ ज्ञान जिसके द्वारा होता है वह आगम है।
आगम वर्गीकरण आगम की अनेक परम्पराएँ हैं, उनमें जैन आगम प्रथित हैं। जैन साहित्य का प्राचीनतम एवं प्रमुख भाग आगम है। समवायांग में आगम के दो भेद प्राप्त होते हैं- १. द्वादशांग गणिपिटक और २ . चतुर्दश पूर्व। नन्दीसूत्र में श्रुतज्ञान (आगम) के दो भेद किए गए हैं- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य। इस प्रकार नन्दीसूत्र की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते है- १. पूर्व २. अंगप्रविष्ट और ३. अंगबाह्य । आज अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य उपलब्ध हैं, पूर्व उपलब्ध नहीं हैं। वर्गीकरण के आधार
१. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के भेद निरूपण में तीन कारण प्रस्तुत किए हैं
गणहरथेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा।
धुवचलविसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।।। अर्थात् जो १.गणधरकृत होता है २. गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित होता है ३. ध्रुव एवं शाश्वत सत्यों से संबंधित होता है, सुदीर्घकालीन होता है, वही श्रुत 'अंग प्रविष्ट' कहा जाता है। इसके विपरीत जो १. स्थविरकृत होता है, २. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित होता है ३. जो चल होता है, तात्कालिक या सामयिक होता है, उस श्रुत का नाम अंग बाह्य है।
२. वक्ता के आधार पर ही आगमों के अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य दो भेद करते हैं। तत्त्वार्थ भाष्य (१.२०) में लिखित है- वक्तृविशेषाद् द्वैविध्यम्।' सर्वार्थसिद्धिकार ने तीन प्रकार के वक्ता का निर्देश किया है-त्रयो वक्तार:-सर्वज्ञस्तीर्थकर: इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति (सर्वार्थ:१.२०) अर्थात् १.सर्वज्ञ तीर्थकर २. श्रृत केवली और ३. आरातीय आचार्य। आरातीय आचार्यों के द्वारा विरचित ज्ञानराशि को अंगबाह्य कहते
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३. तीर्थंकरों द्वारा अर्थ रूप में भाषित तथा गणधरों द्वारा ग्रंथ रूप से ग्रथित आगम अंगप्रविष्ट कहलाते हैं।
स्थविरों सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी और दशपूर्वी आचार्यों द्वारा विरचित आगम अंगबाह्य कहलाते है।
अंगप्रविष्ट आगमद्वादशांग के नाम से जाना जाता है-- १. आचार २
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