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| जिनागमों की भाषा : नाम और स्वरूप न
61 थी उसे खोज निकालने का कार्य दष्कर हो गया है। यह परिवर्तन मल ग्रंथों तक ही सीमित नहीं रहा. परंत भाष्यों और चर्णियों में भी यह परिवर्तन प्रवेश कर गया है। उन्होंने तो जैन मुनिवरों से सविनय प्रार्थना भी की है कि जैन आगमों और उनके व्याख्या ग्रंथों की भाषा के वास्तविक अध्ययन और संशोधन करने वालों को प्राकत आदि भाषाओं के गंभीर जान के लिए परिश्रम करना चाहिए। इस कार्य के लिए आचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य का 'प्राकृत व्याकरण' ही पर्याप्त नहीं है, वह तो प्राकृत भाषा की एक बालपोथी के समान है। साथ ही प्राचीन लिपि शास्त्र क उत्कृष्ट ज्ञान और लिपि दोषों के ज्ञान की भी उतनी ही आवश्यकता है।'
आगमों के गहन अध्येता और बहुश्रुत संशोधक के उपर्युक्त मन्तव्य जैन संघनायकों और पंडितों तथा जैन विद्वानों के लिए कितने मार्मिक हैं इसे शान्त मन से
बुद्धिपूर्वक ध्यान में लेने की अपरिवार्य आवश्यकता है। ५. (i) पालि भाषा में अकारान्त पु.प्र.ए.व. के लिए-ए प्रत्यय, हेत्वर्थक के लिए वैदिक
प्रत्यय, त्तए, इत्तए, सप्तमी एक वचन के लिए- अंसि (अशोक के शिलालेखों का-सि(=स्सि) प्रत्यय और 'र' कार का 'ल' कार नहीं मिलते हैं। इस दृष्टि से अर्धमागधी प्राकृत में पालि भाषा की अपेक्षा से प्राचीन तत्त्व विद्यमान रह गये हैं, यह भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा ध्यान देने योग्य है । मूल पालि भाषा भी संस्कृत से बहुत अधिक प्रभावित हो गयी और वह अपने उद्गम स्थल की विशिष्ट लाक्षणिताएँ सुरक्षित नहीं रख सकी। (ii) हेमचन्द्राचार्य ने तो अर्धमागधी का वैदिक-'इत्तए' प्रत्यय का उल्लेख भी नहीं किया
६. 'Isibhasiyaim', ed. Walther Schubring, (in German in the Roman
Script), inzuden Nachrikhten der Academic der Wissens chaften Gottingen, 1942, pp. 489-576. The same text re-edited both the original Roman Script and in the Devanagari Script was republished by the L.D. Institute of Indology, Ahmedabad380009 (India) by Prof. Dalsukhbhai Malvania in 1974. It is known as a 'प्राचीन जैन आगम' (an ancientjain Canonical work). One would find a lot of disparity between the language of the Acaranga and the Isibhasiyaim, both edited by the same author, i.e. prof. Schubring. It was published first of all 32 years after the edition of Acaranga (1910 A.D.). No doubt we have immense respect and honour for the pioneer like prof. Schubring in the field of Jain Studies but when there was so much disparity between the language of the Acaranga and Isibhasiyaim, the later being also an ancient composition like the Acaranga then why did he not consider it worthwhile to throw fresh light on the archaic nature of Ardhamagadhi, phonologically resembling pali and ancient inscriptions of Ashoka, Kharavela and Mathura. In this respect he has not been very careful and particulai and now it seems that he has avoided the topic of the language (Amg.) of Acaranga, which is an archaic prakrit in comparision with all the other prakrits.
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