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________________ 60 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क समाधि, साधारण -भ- अभि- असुभ, दुल्लभ, पभा, लोभ, विभूसण, सुभ, सोभाग । महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा संपादित आचारांग के संस्करण में इसी प्रकार के अनेक पाठ (प्रयोग) मिलते हैं जिनमें न तो मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन का लोप है और न ही मध्यवर्ती महाप्राण व्यंजन का 'ह' में परिवर्तन है। मूल दन्त्य 'न' प्रारंभ में अधिक मात्रा में और मध्य में कभीकभी मिल रहा है (मध्यवर्ती दन्त्य 'न्' को मूर्धन्य 'ण्' में बदलने की परम्परा ई. सन् के बाद की है । भ. महावीर और भ. बुद्ध तथा अशोक के शिलालेख, तीसरी शताब्दी ई. सन् पूर्व, खारवेल के प्रथम शताब्दी ई: सन् पूर्व या मथुरा के ईस्वी सन् पूर्व और उसके पश्चात् की एक दो शतियों के लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं चल पड़ी थी। इसके सिवाय उन सबमें 'ज्, न्न, न्यू' का 'न्न' ही मिलता है। उनके बदले में 'पण' के प्रयोग ने तो ई. सन् के प्रचलित होने के पश्चात् के काल में प्रधानता प्राप्त की है और वह भी महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव में आकर पश्चिमी भारत की लाक्षणिकता को अपनाया गया है। १८ इस तथ्य शोधन (Fact finding archaic clements) के बारे में अंत में साररूप दिये गये मन्तव्य को देखिए ।" पाद टिप्पण १. देखिए “प्राकृत साहित्य का इतिहास", डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी - १, १९६१, पृ. ३३ २. वही, पृ. २६९ ३. देखिए मेरी पुस्तक Restoration of the Original Language of Ardhamagadhi Texts: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, Vol. 10, Ahmedabad, 1994 ४. देखिए कल्पसूत्र की प्रस्तावना गुजराती (पृ. ३ से १५): साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, १९५२ एवं मेरी पुस्तक 'आचारांग प्रथम श्रुत स्कंध', प्रथम अध्ययन, प्रा. जै. वि. वि. फंड, अहमदाबाद, १९९७ के प्रारंभ के पृष्ठ xviii से xxv (ग्रंथाक १३) । मुनि श्री पुण्यविजयजी के द्वारा की गयी समीक्षा के मुख्य मुद्दे ये हैं "भाषा और पाठों की दृष्टि से प्रतियों में बड़ी ही समविषमता है। अशुद्ध पाठों के विषय में तो कहना ही क्या ? चूर्णिकार और टीकाकारों ने कैसे पाठ और आदर्शों को अपनाया था ऐसा दर्शाने वाली आदर्श प्रतियां भी हमारे सामने नहीं हैं। इसी कारण आगमों की भाषा के बारे में भाषा शास्त्रीय विद्वानों (पाश्चात्त्य और भारतीय) ने जो कितने ही निर्णय लेकर प्रस्तुत किये हैं उन्हें मान्य रखना योग्य नहीं माना जा सकता। जर्मन विद्वान् प्रो. डॉ. एल. आल्सडर्फ ने भी जैसलमेर (राजस्थान) में यह देखकर मुझे कहा था कि 'इस विषय में पुन: गंभीर विचार करने की आवश्यकता है" । मध्यवर्ती व्यंजनों का विकार जिस प्रमाण में आधुनिक संस्करणों में मिलता है उतने प्रमाण में मौलिक अर्धमागधी में नहीं था । आचार्यों ने जानबूझकर समय-समय पर मूल पाठों को (भाषिक दृष्टि से) बदल डाला है। इसी कारण जैन आगमों की मूल भाषा में बड़ा ही परिवर्तन आ गया और अब "जैन आगमों की मूल भाषा कैसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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