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________________ 46 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क रचनाएँ 'अनन्तरागम' और उनके शिष्य परम्परा में आगे की पीढ़ी के स्थविरों की रचनाएँ ‘परम्परागम' कही जाती हैं। ये ही तदुभयागम हैं, ये सभी प्रभु सर्वज्ञ की वाणी का उपयोग करके ही रचित होती हैं। ये ही आगम शास्त्र कहलाते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगम उतने ही प्राचीन हैं जितने प्राचीन तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर अनादिकाल से होते आये हैं और आगे अनन्तकाल तक होते रहेंगे। अतः आगम भी अनादि प्रवाहयुक्त है अर्थात् अनादि काल से विद्यमान हैं और भविष्य में अनन्तकाल तक विद्यमान रहेंगे । तीर्थकर परम्परा की शाश्वतता के साथ आगम की शाश्वतता स्वयं सिद्ध होती है। तीर्थकर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र व अनन्त बलवीर्य के धारक होते हैं। उनके मुख से जो अर्थागम वाणी जन-कल्याणार्थ निकलती है वह अत्यन्त सरल एवं अर्धमागधी भाषा में ही होती है। उनके अतिशय के कारण जो भी उसको सुनता है उसको लगता है कि वह उसकी भाषा में ही कही गई है और वह उसके हृदय को स्पर्श करती है । वह उसे पूर्ण रूप से समझ जाता है। स्पष्ट है कि सीमित समय में जो प्रभु भाषते हैं, वह सार रूप ही होता है। तीर्थंकर भगवान केवल अर्थ रूप में ही उपदेश देते हैं और गणधर उसे सूत्रबद्ध अथवा ग्रन्थबद्ध करते हैं । अर्थात्मक ग्रन्थ के प्रणेता तीर्थंकर हैं। आचार्य देववाचक ने इसीलिये आगमों को तीर्थंकर-प्रणीत कहा है । प्रबुद्ध पाठकों को यह स्मरण रखना होगा कि आगमसाहित्य की जो प्रामाणिकता है उसका मूल कारण गणधर कृत होने से नहीं, किन्तु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं, किन्तु अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। यह सभी ज्ञान गुरु-शिष्य परम्परा से उनके शासन में सदैव विद्यमान रहता है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जो आगम-ज्ञाननिधि गुरु द्वारा शिष्य को उपदेश रूप में प्राप्त होती है वही आत्मा का कल्याण करने वाली होती है। शिष्य उसे स्मृति में रखने का प्रयत्न करता है। 1 तीर्थकर किन क्षेत्रों में और किस काल में होते हैं, यहाँ पर इन बातों पर कुछ विचार करते हैं। चौदह राजु लोक में तिरछा लोक के १०१ क्षेत्रों में मनुष्य का होना माना जाता है। ये क्षेत्र हैं- पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच महाविदेह कुल १५ कर्मभूमियाँ, ३० अकर्म भूमियाँ और ५६ अन्तद्वीप हैं। इनमें से १५ कर्मभूमियों में ही तीर्थकर होते हैं। शेष ३० अकर्मभूमियों एवं ५६ अन्तद्वीपों में तीर्थंकर नहीं होते। सभी भरत एवं सभी ऐरावत क्षेत्र काल चक्र के आधीन हैं | कालचक्र निरन्तर घूमता रहता है। इसके दो भाग हैं - एक अवसर्पिणी काल और दूसरा उत्सर्पिणी काल, जो एक के बाद एक निरन्तर आते रहते हैं। जैसे कि अपने भरत क्षेत्र में वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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