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________________ | जैन आगमों की प्राचीनता मायन रहा है जिसमें पुद्गलों की शक्ति निरन्तर घटती जाती है। मानव देह, जो अजीव पुद्गलों से निर्मित है, की अवगाहना, उम्र, शारीरिक बल, स्मरण शक्ति आदि सब, ज्यों ज्यों यह काल बढ़ता है, घटते जाते हैं। अवसर्पिणी काल के बीत जाने के बाद तथा उसके पूर्व भी उत्सर्पिणी काल होता है, जिसमें अजीव पुद्गलों की शक्ति जैसे जीवों की अवगाहना, आयुष्य आदि सब बढ़ते जाते हैं। एक अवसर्पिणी काल और एक उत्सर्पिणी काल मिल कर एक कालचक्र बनता है, जिसका पूर्ण काल २० कोटाकोटि सागरोपम है, क्योंकि प्रत्येक अवसर्पिणी और प्रत्येक उत्सर्पिणी १०-१० कोटाकोटि सागरोपम के होते हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी और प्रत्येक उत्सर्पिणी ६ आरों में विभक्त होते हैं। इनके नाम एवं प्रत्येक काल का विवरण निम्न सूचि में दर्शाया गया है। अवसर्पिणी काल प्रथम आरा सुषम-सुषम ४ कोटाकोटि सागरोपम दूसरा आरा सुषम ३ कोटाकोटि सागरोपम तीसरा आरा सुषम-दुषम २ कोटाकोटि सागरोपम चौथा आरा दुषम-सुषम १ कोटाकोटि सागरोपम में ४२हजार वर्ष कम पाँचवा आरा दुषम २१ हजार वर्ष छठा आरा दुषम-दुषम २१ हजार वर्ष कुल १० कोटाकोटि सागरोपम अवसर्पिणी काल में सभी भरत एवं सभी ऐरावत क्षेत्रों में समस्त २४ तीर्थकर चौथे आरे ‘दुषम-सुषम' में ही होते हैं। इस समय दुःख अधिक और सुख कम होता है। उत्सर्पिणी काल प्रथम आरा दुषम–दुषम २१ हजार वर्ष दूसरा आरा दुषम २१ हजार वर्ष तीसरा आरा दुषम-सुषम १ कोटाकोटि सागरोपम में ४२ हजार वर्ष कम चौथा आरा सुषम–दुषम २ कोटाकोटि सागरोपम पाँचवा आरा सुषम ३ कोटाकोटि सागरोपम छठा आरा सुषम-सुषम ४ कोटाकोटि सागरोपम कुल १० कोटाकोटि सागरोपम । उत्सर्पिणी काल में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में सभी तीर्थकर “दुषम–सुषम' नाम के तीसरे आरे में ही होते हैं। सभी कर्मों का तप आदि द्वारा क्षय करने का यही श्रेष्ठ समय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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