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जैन आगमों की प्राचीनता डॉ. पदमचन्द मुणोत
जैन आगमों की रचना के संबंध में अनेकविध प्रश्न उठते हैं। इनके रचयिता कौन थे ? रचना कब हुई ? क्या ये अनादि अनन्त हैं ? इन प्रश्नों के संबंध में गणितशास्त्र के सेवानिवृत्त आचार्य डॉ. पदमचन्द जी मुणोत ने जैनदर्शन मान्य कालचक्र का निरूपण करते हुए तीर्थंकरों की मूल वाणी को आधार बनाकर सूत्रबद्ध शास्त्र को आगम कहा है। यह अर्थ रूप में शाश्वत एवं शब्दरूप में नवीन होते हैं। वर्तमान में तीर्थंकर भगवान महावीर की वाणी को आधार मानकर ग्रथित सूत्र 'आगम' की संज्ञा प्राप्त हैं। आलेख की सामग्री अपने आप में जिज्ञासु पाठकों के लिये मार्गदर्शक है । - सम्पादक
जैन धर्म-दर्शन व संस्कृति का मूल आधार वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैन वाङ्मय है। जैन वाङ्मय से तात्पर्य समस्त सुत्तागम, अत्थागम एवं तदुभयागम रूप शास्त्रों से है । सर्वज्ञ अर्थात् सम्पूर्ण रूप से आत्म दर्शन करने वाले ही विश्व दर्शन कर सकते हैं। जो समग्र को जानते हैं वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं, परम हितकर निःश्रेयस का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं। उनकी वाणी में वीतरागता के कारण दोष की किंचित् मात्र भी संभावना नहीं रहती और न उसमें पूर्वापर विरोध या युक्तिबाध ही होता है ।
जब तीर्थंकर भगवान को केवलज्ञान होता है अर्थात् वे सर्वज्ञ, अनन्तज्ञान के धारक हो जाते हैं, तब तीर्थंकर लब्धि के कारण वे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना करते हैं। इन तीर्थों की स्थापना तभी होती है जब इन्द्रों एवं देवों द्वारा रचित समवसरण में करुणासागर तीर्थंकर प्रभु जग- कल्याणार्थ भवभयभंजन उपदेश की सरिता बहाते हैं। उस समय उनके वचनामृत का पान करके अनेक भव्य प्राणी इन चार तीर्थों में स्थित हो जाते हैं । प्रभु अपने उपदेश में दो प्रकार का धर्म बतलाते हैं- एक अनगार धर्म व दूसरा आगार धर्म । अनगार धर्म स्वीकारने वाले पुरुष साधु कहलाते हैं और स्त्री साध्वी कहलाती हैं। इसी प्रकार अणुव्रत स्वीकार करने वाले पुरुष श्रावक एवं स्त्री श्राविका कहलाती है। इस प्रकार चार तीर्थ की स्थापना होती है। उनमें से कुछ पण्डित अपने गण (शिष्य समुदाय) को साथ लेकर दीक्षित होते हैं वे गणधर कहलाते हैं । उनमें पूर्वभव संस्कार से गणधर लब्धि प्रकट होती है ।
कहते हैं
अत्थं भासइ अरहा ।
सुतं गति गहरा णिउणं । । - अनुयोगद्वार
प्रभु द्वारा प्रस्फुटित वाणी अर्थागम है जो मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है। महान् प्रज्ञावान गणधर उसे सूत्र रूप से गूंथकर व्यवस्थित आगम का रूप देते हैं, जो सूत्रागम कहलाते हैं। गणधरों के प्रथम शिष्य की
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