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आगमों की बाचनाएँ
डॉ. सागरमल जैन
तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी गणधरों एवं स्थविरों के द्वारा सूत्रागम रूप में ग्रथित । उस सूत्राम की भी जब पूर्णत: स्मृति नहीं रह सकी, तो समय-समय पर योग्य संतों की सन्निधि में आगमों की वाचनाएँ हुई। इनमें आगमों को सुरक्षित एवं सम्पादित किया गया। पाटलिपुत्र, कुमारीपर्वत, मथुरा, वल्लभी एवं पुनः वल्लभी में हुई पाँच आगम-वाचनाओं का परिचय जैन धर्म-दर्शन के शिखरायमाण मनीषी विद्वान् डॉ. सागरमल जी जैन के आलेख में प्रस्तुत है । यह आलेख उनके अभिनन्दन ग्रन्थ के आगम खण्ड में प्रकाशित लेख "अर्द्धमागधी आगम - साहित्य : एक विमर्श' में से संकलित है। - सम्पादक
यह सत्य है कि वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगमों के अन्तिम स्वरूप का निर्धारण वल्लभी वाचना में वी. नि. संवत् ९८० या ९९३ में हुआ, किन्तु उसके पूर्व भी आगमों की वाचनाएँ तो होती रही हैं। जो ऐतिहासिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनके अनुसार अर्धमागधी आगमों की पाँच वाचनाएँ होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं ।
प्रथम वाचना
प्रथम वाचना महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई । परम्परागत मान्यता तो यह है कि मध्यदेश में द्वादशवर्षीय भीषण अकाल के कारण कुछ मुनि काल - कवलित हो गये और कुछ समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों की ओर चले गये। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस आए तो उन्होंने पाया कि उनका आगम ज्ञान अंशत: विस्मृत एवं विशृंखलित हो गया है और कहीं-कहीं पाठभेद हो गया है। अतः उस युग के प्रमुख आचार्यों ने पाटलिपुत्र में एकत्रित होकर आगमज्ञान को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया । दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य का कोई विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं था। अतः ग्यारह अंग तो व्यवस्थित किये गये, किन्तु दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्निहित साहित्य को व्यवस्थित नहीं किया जा सका, क्योंकि उसके विशिष्ट ज्ञाता भद्रबाहु उस समय नेपाल में थे। संघ की विशेष प्रार्थना पर उन्होंने स्थूलिभद्र आदि कुछ मुनियों को पूर्वसाहित्य की वाचना देना स्वीकार किया । स्थूलभद्र भी उनसे दस पूर्वी तक का ही अध्ययन अर्थ सहित कर सके और शेष चार पूर्वो का मात्र शाब्दिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाये ।
इस प्रकार पाटलिपुत्र की वाचना में द्वादश अंगों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया, किन्तु उनमें एकादश अंग ही सुव्यवस्थित किये जा सके। दृष्टिवाद और उसमें अन्तर्भुक्त पूर्व साहित्य को पूर्णतः सुरक्षित नहीं किया जा सका और उसका क्रमशः विलोप होना प्रारम्भ हो गया। फलत: उसकी विषय वस्तु को लेकर अंगबाह्य ग्रन्थ निर्मित किये
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