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मूलाचार : एक परिचय किया गया है। 5. पंचाचाराधिकार- इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप और वीर्य- इन पंचाचारों का भेद-प्रभेदों द्वारा विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। दर्शनाचार के अन्तर्गत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नव पदार्थों का वर्णन है। इन नव पदार्थों में जीव तत्त्व के संसारी और मुक्त ये दो-दो भेद किये गये हैं। इन संसारी जीव के पृथ्वीकायिक. अप्कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा त्रस इन छह भेदों का भेदोपभेद पूर्वक विस्तृत प्रतिपादन है। रात्रिभोजन त्याग, पांच समिति, तीन गुप्ति, तप, ध्यान, स्वाध्याय आदि विषयों का विस्तृत स्वरूप कथन तथा इनका पालन करने से होने वाले लाभों का भी विवेचन. है। प्रसंगवश गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली अथवा अभिन्नदशपूर्वी द्वारा कथित ग्रन्थों को सूत्र कहा है। संग्रह, आराधना नियुक्ति, मरणविभक्ति, स्तुति, प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा आदि जैन सूत्र ग्रन्थों तथा ऋग्वेद, सामवेद आदि वेद शास्त्रों, कौटिल्य, आसुरक्ष, महाभारत, रामायण आदि ग्रन्थों एवं रक्तपट, चरक, तापस, परिव्राजक आदि के नामों का उल्लेख मिलता है। 6. पिण्डशुद्धि अधिकार- इसमें तेरासी गाथाएँ हैं। श्रमणों के पिण्डैषणा (आहार) से संबंधित सभी नियमों की विशद मीमांसा की गयी है। उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, प्रमाण, इंगाल, धूम और कारण इन आठ दोषों से रहित आहार शुद्धि का, आहार त्याग के कारण, आहार ग्रहण के उद्देश्य, दाता के गुण, चौदह मल, आहार ग्रहण की विधि और मात्रा तथा आहार के अन्तराय आदि आहार चर्या से संबंधित सभी विषयों का विस्तृत विवेचन है। 7. षडावश्यक-अधिकार- इस अधिकार को आवश्यकनियुक्ति नाम से अभिहित किया गया है तथा इसका प्रारम्भ पंच नमस्कार की निरुक्तिपूर्वक हुआ है। अर्हन्त, जिन, आचार्य, साधु, उत्तम आदि शब्दों की भी निरुक्ति पूर्वक व्याख्या की गई है। अर्हन्त, पद की निरुक्ति महत्त्वपूर्ण है। सामायिक, स्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यकों का निरुक्ति एवं भेदपूर्वक विस्तृत विवेचन है। लोक, धर्म, तीर्थ, भक्ति, विनय, कृतिकर्म, अवनति, चतुर्विध आहार और आलोचना-इन सब विषयों का स्वरूप तथा भेदपूर्वक कथन, स्वाध्याय काल, वन्दनादि कायोत्सर्ग में वर्ध्य बत्तीस दोष, आसिका, निषीधिका का विधान तथा पार्श्वस्थादि पापश्रमणों आदि का विवेचन किया गया है। इस अधिकार की ये विशेषतायें हैं कि इसमें सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयम के विषय में उन मतों का उल्लेख किया गया है जिनका संबंध प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एवं अन्तिम तीर्थकर महावीर तथा मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के परम्परा-भेद से है। नित्य प्रतिक्रमण और नैमित्तिक प्रतिक्रमण के संबंध में भी इसी तरह के मतों का उल्लेख है।
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