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________________ 1496 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक 2. बृहत्प्रत्याख्यान-संस्तरस्तव अधिकार- इसमें श्रमण को सभी पापों का त्यागकर मृत्यु के समय दर्शन आदि चार आराधनाओं में स्थिर रहने, क्षुधातूंषा आदि परीषहों को समताभाव से सहने तथा निष्कषाय होकर प्राण त्याग करने का उपदेश है। प्रत्याख्यान विधि बताते हुए प्रत्याख्यान करने वाले के मुख से कहलाता गया है कि जो कुछ मेरी पापक्रिया है उस सबका मन, वचन, काय से त्याग करता हूँ और समताभाव रूप निर्विकल्प एवं निर्दोष सामायिक करता हूँ। सब तृष्णाओं को छोड़कर मैं समाधिभाव अंगीकार करता हूँ। सब जीवों के प्रति मेरा क्षमाभाव है तथा जीव मेरे ऊपर क्षमाभाव करें। मेरा सब प्राणियों पर मैत्री भाव है, किसी से भी मेरा वैर नहीं है। इसके अतिरिक्त चार संज्ञाओं, तैंतीस आशातनाओं, श्रमण की मनोभावनाओं के वर्णन के साथ-साथ मरण के भेद यथा मरण-समय णमोकार मंत्र के चिन्तन आदि करने का भी प्रतिपादन किया गया है। 3. संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकार- इस अधिकार में व्याघ्रादि-जन्य आकस्मिक मृत्यु के उपस्थित होने पर पांच पापों के त्यागपूर्वक सामायिक समाधि धारण करके सर्वआहार, कषाय और ममत्व भाव के त्यागपूर्वक शरीर त्याग की प्रेरणा दी है। प्रत्याख्यान, आराधनाफल, पंडितमरण, समाधिमरण तथा जन्म एवं मृत्यु का भय आदि विषयों का वर्णन करके अन्त में दस प्रकार के मुण्डों के उल्लेखपूर्वक अधिकार की समाप्ति की गयी है। 4. समाचाराधिकार- इसमें विविध समाचार का अच्छा विवेचन है। समाचार शब्द के चार अर्थ बताये हैं- रागद्वेष से रहित समता का भाव, अतिचाररहित मूलगुणों का अनुष्ठान, समस्त श्रमणों का समान तथा हिंसा रहित आचरण एवं सभी क्षेत्रों में हानि-लाभ रहित कायोत्सर्गादि के परिणाम रूप आचरण। उच्च ज्ञान-प्राप्ति के निमित्त शिष्य-श्रमण को अपने गण से दूसरे गण एवं उसके आचार्य के पास किस विधि से जाना चाहिये इसका अच्छा वर्णन करके एकाकी एवं स्वच्छन्द विहार की सम्भाव्य हानियों का कथन तथा निषेध किया है। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पांच 'आधार जहां न हों वहां रहना उचित नहीं है। इसी प्रसंग में आचार्य के गुणों का भी कथन किया है। इस अधिकार का महत्त्वपूर्ण अंश परगण से स्वगण में आगन्तुक श्रमणों का किस प्रकार स्वागत, उनकी परीक्षा तथा उनका सहयोग किया जाता है इन सबका बहुत ही स्पष्ट और सुन्दर चित्रण है। आर्यिकाओं का संक्षिप्त आचार, श्रमण और आर्यिकाओं के पारस्परिक संबंधों तथा आर्यिका को दीक्षा, उपदेश करने वाले अनेक गुण-धर्मों से युक्त गणधर एवं उनकी विशेषताओं का वर्णन है। आर्यिकाओं के समाचार के अन्तर्गत एक दूसरे के अनुकूल रहने, अभिरक्षण का भाव रखने, लज्जा एवं मर्यादा का .. पालन करने तथा माया, रोष एवं वैर जैसे भावों से मुक्त रहने का विधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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