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________________ मूलाचार : एक परिचय डॉ. फूलचन्द जैन 'प्रेमी' 'मूलाचार' दिगम्बर परम्परा का आचार-ग्रन्थ है। डॉ. सागरमलजी ने इसे विभिन्न आधारों पर यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ सिद्ध किया है। (द्रष्टव्य-- डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ का आगमखण्ड ) । सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में जैनदर्शन विभाग के अध्यक्ष डॉ. फूलचन्द्र जी जैन 'प्रेमी' ने मुलाचार पर शोधकार्य किया है, उन्होंने इस ग्रन्थ का भाषावचनिका के साथ संपादन भी किया है। प्रस्तुत आलेख उनके सम्पादित ग्रन्थ सम्पादकीय में से संकलित है। -सम्पादक मूलाचार श्रमणाचार विषयक एक प्राचीन और अनुपम कृति है । शौरसेनी प्राकृत भाषा में रचित इस बहुमूल्य ग्रन्थ के यशस्वी रचयिता आचार्य वट्टकेर हैं। दिगम्बर जैन परम्परा में आचारांग के रूप में प्रसिद्ध यह श्रमणाचार विषयक मौलिक, स्वतन्त्र, प्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थ २-३ शती के आसपास की रचना है । यद्यपि अन्य कुछ प्रमुख आचार्यों की तरह आचार्य वट्टकेर के विषय में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनकी अनमोल कृति "मूलाचार" के अध्ययन से ही आचार्य वट्टकेर का बहुश्रुत सम्पन्न व्यक्तित्व, उत्कृष्ट चारित्रधारी आचार्यवर्य के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होता है। दक्षिण भारत में बेट्टकेरी स्थान के निवासी वट्टकेर दिगम्बर परम्परा में मूलसंघ के प्रमुख आचार्य थे। इन्होंने मुनिधर्मी प्रतिष्ठित परम्परा को दीर्घकाल तक यशस्वी और उत्कृष्ट रूप में चलते रहने और मुनि दीक्षा धारण के मूल उद्देश्य की प्राप्ति हेतु मूलाचार ग्रन्थ की रचना की, जिसमें श्रमणनिर्ग्रन्थों की आचार संहिता का सुव्यवस्थित, विस्तृत एवं सांगोपांग विवेचन किया है। विषय परिचय मूलाचार में बारह अधिकार हैं । प्रत्येक अधिकार के प्रतिपाद्य विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है । 1. मूलगुणाधिकार- इसमें छत्तीस गाथाएँ हैं । सर्वप्रथम मंगलाचरण पूर्वक विषय प्रतिपादन की घोषणा की गई है तथा श्रमणों के अट्ठाईस मूलगुणों का कथन किया गया है । तदनन्तर पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंचेन्द्रिय निरोध, षडावश्यक, लोच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितभोजन और एकभक्त - इन अट्ठाईस मूलगुणों की सारभूत परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई हैं । अचेलकत्व मूलगुण के अन्तर्गत शरीर ढकने के लिए वस्त्र, अजिन (चमड़ा), वल्कल, तृण, पत्ते, आभूषण आदि के धारण का निषेध करके निर्ग्रन्थ (नग्न) वेश धारण करने को अचेलकत्व कहा है। मूलगुणों के पालन से मिलने वाले मोक्षफल के कथन के बाद अधिकार की समाप्ति की गयी है। का आचार-ग्रन्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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