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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक
8. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यात- इन बारह अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) का वैराग्यवर्द्धक सूक्ष्म विवेचन है। इसमें बताया है- राग, द्वेष, क्रोधादि आस्रव हैं, जिनमें कर्मों का आगमन होता है। ये कुमार्गों पर ले जाने वाली अति बलवान शक्तियां हैं। शांति, दया, क्षमा, वैराग्य आदि जैसे-जैसे बढ़ते हैं, जीव वैसे-वैसे मोक्ष के निकट बढ़ता जाता है। चार प्रकार के संसार का स्वरूप तथा अन्त में अनुप्रेक्षाओं की भावना से कर्मक्षय और परिणामशुद्धि का विवेचन है।
9. अनगारभावनाधिकार - इस अधिकार में अनगार का स्वरूप तथा लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीरसंस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यान इन दस शुद्धियों को अनगार के सूत्र बताये हैं । अनगार तथा उनके सत्त्वगुणों, अनगार के पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया गया है। वाक्यशुद्धि के प्रसंग में स्त्री, अर्थ, भक्त, खेट, कर्वट, राज, चोर, जनपद, नगर और आकर इन कथाओं का स्वरूप तथा रूपक द्वारा प्राणि संयम और - इन्द्रियसंयम रूपी आरक्षकों द्वारा तपरूपी नगर तथा ध्यानरूपी रथ के रक्षण की बात कही गयी है । यथार्थ अनगारों का विवेचन तथा अभ्रावकाश आदि योगों का स्वरूप कथन भी किया गया है 1
10 समयसाराधिकार- इस अधिकार में एक सौ चौबीस गाथाएँ हैं। इसमें वैराग्य की समयसारता, चारित्राचरण आदि का कथन करते हुए श्रमण को लौकिक व्यवहार से दूर रहने को कहा है। चारित्रसंयम और तप से रहित ज्ञानादि की निरर्थकता और प्रतिलेखन तथा इसके साधनभूत पिच्छिका की विशेषताएँ आदि इस अधिकार में प्रारम्भिक प्रतिपाद्य विषय हैं। आर्यिकाओ के आवास पर श्रमणों के गमन तथा स्वाध्याय आदि कार्य करने का निषेध किया गया है। पंचेन्द्रिय विषयों एवं काष्ठादि में चित्रित स्त्रियों तक से दूर रहने के कथन प्रसंग में ही अब्रह्म के दस कारण तथा पंचसूना आदि विविध विषयों का अच्छा विवेचन है। इसी अधिकार में आचेलक्य, औद्देशिक शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण मासस्थितिकल्प एवं पर्यास्थितिकल्प- इन दस स्थितिकल्पों का नामोल्लेख है । अधिकार के अन्त में शास्त्र के सार का प्रतिपादन करते हुए चारित्र के सर्वश्रेष्ठ कहा है ।
11. शीलगुणाधिकार- इसमें मात्र छब्बीस गाथायें हैं। इस अधिकार में तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पांच इन्द्रिय, दस काम, दस श्रमणधर्म इन्ही सबका परस्पर गुणा करने पर शील के अठारह हजार भेदों का कथन किय गया है । इसी अधिकार में गुणों अर्थात् उत्तर गुणों के भेद-प्रभेदों की चौरास लाख संख्या का कथन किया है।
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