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________________ द्वादशांगी की रचना, उसका हास एवं आगम-लेखन 35 आगमों की संख्या में नहीं है। संभव है ४४-४५ आगम और ज्योतिषकरंडक आदि वीर नि.सं. ९८० में हुई वल्लभी परिषद् में लिखे गये हों । विद्वान इतिहासज्ञ पुरातन सामग्री के आधार पर इस संबंध में गम्भीरतापूर्वक गवेषणा करें तो सही तथ्य प्रकट हो सकता है। स्पष्टीकरण मूलसूत्रों की संख्या और क्रम के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ उपलब्ध होती हैं। कुछ विद्वानों ने ३ मूलसूत्र माने हैं तो कहीं ४ की संख्या उपलब्ध होती है। क्रम की दृष्टि से उत्तराध्ययन को पहला स्थान देकर फिर आवश्यक और दशवैकालिक बताया गया है जबकि दूसरी ओर उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और आवश्यकसूत्र इस प्रकार मूलसूत्रों की संख्या तीन की गई है। पिण्डनिर्युक्ति तथा कहीं-कहीं पिण्डनिर्युक्ति और ओघनिर्युक्ति को संयुक्त मान कर चार की संख्या मानी गयी है। स्थानकवासी परम्परा के अनुसार आवश्यक और पिण्डनिर्युक्ति के स्थान पर नंदी और अनुयोगद्वार को मिला कर चार मूल सूत्र माने गये हैं । जबकि दूसरी परम्परा नन्दी और अनुयोगद्वार को चूलिका सूत्र के रूप में मान्य करती है। संदर्भ १. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंधति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुतं पवत्तइ || (आ. नियुक्ति, गा. १९२, धवला भा. १, पृ. ६४,७२) २. "दुवालसंगे गणिपिडगे" (समवायांगसूत्र १ व १३६, नंदी. ४०) ३. सुत्तं गणहरकथिदं, तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । सुदकेवलिया कथिदं, अभिण्णदसपुव्वकथिदं च ॥४॥ (मूलाचार, ५–८०) ४. इच्चेइय दुवालसंग गणिपिडगं वुच्छित्तिनयट्ठाए साइयं सपज्जवसियं, अवुच्छित्तिनयट्टाए अणाइयं अपज्जवसियं ।। (नन्दीसूत्र, सूत्र ४२) ५. "तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज सुहम्मस्स अणगारस्स जेट्ठे अंतेवासी अज्ज जंबू नामे अणगारे.... ....अज्ज सुहम्मस्स थेरस्स नच्चासन्ने नाइदूरे, विएण पज्जुवासमाणे एवं वयासी जइणं भंते समणेण भगवया महावीरेणं. .... पंचमस्स अंगस्स अयमट्ठे पण्णत्ते छट्ठस्स णं भंते! नायधम्मकहाणं के अट्ठे पण्णत्ते ? जंबूत्ति अज्जसुहम्मे थेरे अज्ज जंबू नामं अणगारं एवं वयासी. (नायाधम्मकहाओ १-५) ६. तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्टः । .. ..तस्य साक्षात् शिष्यैः बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तैः गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमंअंगपूर्वलक्षणम् ।। (सर्वार्थसिद्धि १ -२० ) बुद्ध्यतिशयर्द्धियुक्तैर्गणधरैरनुस्मृतग्रन्थरचनम् - आचारादि द्वादशविधमंगप्रविष्ट मुच्यते । (राजवार्तिक १ - २०१२, पृ. ७२ ) ८. (क) तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतरागप्रणेतृकत्वसिद्धेः अर्हद्भाषितार्थगणधर देवैः प्रथितम् ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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