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प्रकीर्णक-साहित्य : एक परिचय
471] प्रथम अध्याय में देव-ऋषि नारद के उपदेशों में अहिंसा-सत्य-अस्तेय तथा ब्रह्मचर्य अपरिग्रह को मिलाकर एक इस प्रकार चार शौच का वर्णन है। साधक को सत्यवादी, दत्तभोजी और ब्रह्मचारी होने के निर्देश हैं। द्वितीय अध्याय में वज्जीयपुत्त (वात्सीयपुत्र) के उपदेश- कर्म ही जन्ममरण का हेतु है, ज्ञान और चित्त की शुद्धि से. कर्म-सन्तति का क्षय और निर्वाण प्राप्ति – का वर्णन है। तृतीय अध्याय में असित दैवल के कषायविजय उपदेश का अंकन है। असित दैवल जैन, बौद्ध, औपनिषदिक तीनों धाराओं में मान्य हैं। चतुर्थ अध्याय में अंगिरस भारद्वाज मनुष्य को दोहरे जीवन को छोड़कर अन्तर की साधु मनोवृत्ति अपनाने का उपदेश देते हैं। पंचम अध्याय में पुष्पशालपुत्र समाधिमरण एवं आत्मज्ञान द्वारा समाधि प्राप्ति का उपदेश देते हैं। छठे वल्कलचीरी अध्याय में नारी के दुर्गुणों की चर्चा है। सातवें कुम्मापुत्त (कूर्मापुत्र) अध्याय में कामना–परित्याग का निरूपण हैं। आठवें केतलिपुत्र अध्याय में रागद्वेष रूपी ग्रन्थि छेद का वर्णन है। नवें महाकाश्यप अध्याय में कर्म-सिद्धान्त की व्याख्या की है। दसवें तेतलिपुत्र अध्याय में अनास्था और अविश्वास को वैराग्य का कारण बताया है। ग्यारहवें मंखलिपत्र अध्ययन में तारणहारी गुरू का स्वरूप वर्णित है। बारहवें से लेकर पैंतालीसवें अध्याय तक क्रमश: निम्न ऋषियों के उपदेश. संकलित हैं' (१२) याज्ञवल्क्य (१३)भयालि (१४) बाहुक (१५) मधुरायन (१६) शौर्यायण (१७) विदुर (१८) वारिषेण (१९) आर्यायण (२०) (ऋषि का उल्लेख नहीं) (२१) गाथापतिपुत्र (२२) गर्दभालि (२३) रामपुत्र (२४) हरिगिरि (२५) अम्बड (२६) मातंग (२७) वारत्तक (२८) आर्द्रक (२९) वर्द्धमान (३०) वायु. (३१) अर्हत् पार्श्व (३२) पिंग (३३) महाशालपुत्र (३४) ऋषिगिरि (३५) उद्दालक (३६) नारायण (३७) श्रीगिरि (३८) सारिपुत्र (३९) संजय (४०) द्वैपायन (४१) इन्द्रनाग (४२) सोम (४३) यम (४४) वरुण (४५) वैश्रमण। इन पैंतालीस ऋषियों को 'अर्हत् ऋषि-मुक्त – मोक्ष प्राप्त कहा गया है।
समवायांग सूत्र के ४४ समवाय में ऋषिभाषित के ४४ अध्यायों का उल्लेख है। इससे इसकी प्राचीनता स्वयंसिद्ध है।३६ जैन-बौद्ध-आर्य तीनों दर्शनों के उपदेशों के मेल का यह अनूठा संग्रह है। ९.दीवसागरपण्णत्तिसंगहणीगाहाओ३७ :- द्वीपसागर प्रज्ञप्ति प्रकीर्णक में २२५ गाथाएँ हैं। सभी गाथाएँ मध्यलोक में मनुष्य क्षेत्र अर्थात् ढ़ाई द्वीप के आगे के द्वीप एवं सागरों की संरचना को प्रकट करती हैं। ग्रन्थ के समापन में कहा गया है कि जो द्वीप और समुद्र जितने लाख योजन विस्तार वाला होता है वहाँ उतनी ही चन्द्र और सूर्यों की पंक्तियाँ होती हैं। ३८)
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