________________
1470E
ATRE जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क
के निरूपण के अतिरिक्त इसमें एकत्व भावना, प्रतिक्रमण, आलोचना, क्षमापना का भी निरूपण है। असमाधिपूर्वक मरण प्राप्त करने वाले आराधक नहीं कहे जाते। शस्त्रग्रहण, विषभक्षण, आग से जलना, जल में प्रवेश आदि से मरना बालमरण में परिगणित किया है। पंडितमरण की आराधना-विधि का वर्णन कर मरणकाल में प्रत्याख्यान करने वाले को धीर, ज्ञानी और शाश्वत स्थान प्राप्त करने वाला कहा है। 'आउरो – गिलाणो, तं किरियातीतं णातुं गीयत्था पच्चक्खावेंति, दिणे दिणे दव्वहासं करेंता अंते य सव्वदव्वदातणताए भत्ते वेरग्गं जणेता भत्ते नित्तण्हस्स भवचरिमपच्चक्खाणं कारेंति एतं जत्थऽज्ज्ञयणे सवित्थरं वणिज्जइ तमज्ज्ञयणं आउरपच्चक्खाणं' नंदिसूत्र चूर्णि के इस परिचय का अर्थ ही इस प्रकीर्णक का सारांश है कि जिसे असाध्य रोग हो ऐसे आतुर (बीमार) मुनि को गीतार्थ पुरुष प्रतिदिन खाद्य द्रव्य कम कराकर प्रत्याख्यान कराता है, अंत में बीमार मुनि आहार के विषय में वैराग्य पाकर अनासक्त हो जाय तब जीवनपर्यन्त आहार त्याग का प्रत्याख्यान कराने का वर्णन जिसमें है वह आतुर प्रत्याख्यान प्रकीर्णक है। ७.महापच्चक्खाण:
__ महाप्रत्याख्यान-नंदिसूत्रचूर्णि में उपलब्ध महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक के परिचय के अनुसार जो स्थविरकल्पी जीवन की अन्तिम वेला में विहार करने में असमर्थ होते हैं उनके द्वारा जो अनशन व्रत (समाधिमरण) स्वीकार किया जाता है, उन सबका जिसमें विस्तृत वर्णन हो उसे महाप्रत्याख्यान कहते हैं। महाप्रत्याख्यान में कुल १४२ गाथाएँ हैं, जिनमें दुश्चरित्र त्याग की विविध प्रतिज्ञा, सर्वजीवक्षमापना, निंदा-गर्हा-आलोचना, ममत्वछेद,
आत्मधर्मस्वरूप, मूलगुण उत्तरगुण की विराधना की निंदा, एकत्व भावना, मिथ्यात्वमाया त्याग, आलोचक स्वरूप और उसका मोक्षगामित्व, आराधना
का महत्त्व, भेद आराधनापताका प्राप्ति आदि विविध विषयों का विवेचन किया गया है। सभी जीवों के प्रति क्षमापना, धीर मरण की प्रशंसा और प्रत्याख्यान का फल इस प्रकीर्णक के मुख्य विषय हैं। ८ इसिभासियाई
- ऋषिभाषित-यह प्रकीर्णक साहित्य में प्राचीनतम ग्रन्थ है - ऋषिभाषित प्रकीर्णक सूत्र में ४५ ऋषियों के उपदेश रूप ४५ अध्ययन हैं। ये ४५ ऋषि प्रत्येक बुद्ध थे। इनमें बीस नेमिनाथ के शासनकाल में, पन्द्रह पार्श्वनाथ के शासनकाल में और दस वर्द्धमान महावीर स्वामी के शासनकाल में होने का उल्लेख इसिमासियाणं संगहणी के प्रथम श्लोक में है।' ग्रन्थ में इन पैंतालीस ऋषियो के उपदेशों का संकलन है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org