________________
1426
मा जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक] षष्ठ उद्देशक
सूत्र १ में बताया गया है कि भिक्षु स्थविर की आज्ञा लेकर ही स्व-ज्ञातिजनों के यहां गोचरी के लिए जावे। आज्ञा के बिना जाने पर प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं। अल्पश्रुत व अगीतार्थ भिक्षु को ज्ञातिजनों के यहां अकेले जाना नहीं कल्पता है। गीतार्थ भिक्षु के साथ ही जाना कल्पता है। वहां पहुँचने से पूर्व जो वस्तु बनी है वही लेनी चाहिए, बाद में बनी वस्तु नहीं लेनी चाहिए।
सूत्र २-३ में आचार्य आदि के अतिशय का उल्लेख किया गया है। आचार्य एवं उपाध्याय के पांच अतिशय हैं१. दोनों उपाश्रय के भीतर पैरों की रज साफ कर सकते हैं। २. मलमूत्र त्याग कर सकते हैं ३. उनका सेवा कार्य ऐच्छिक होता है। ४-५ उपाश्रय के बाहर एवं भीतर विशेष कारण से एक-दो रात अकेले रह सकते हैं।
गणावच्छेदक के दो अतिशय हैं- १-२ उपाश्रय के बाहर एवं भीतर एक-दो रात अकेले रह सकते हैं।
सूत्र ४-५ में कहा गया है कि अनेक अगीतार्थ भिक्षुओं को आचारप्रकल्प- धर के बिना एक साथ रहना नहीं कल्पता है। यदि रहे तो प्रायश्चित्त तप के पात्र होते हैं। परिस्थितिवश योग्य उपाश्रय में १-२ रात रह सकते हैं।
सूत्र ६-७ में बताया गया है कि बहुश्रुत एवं गीतार्थ भिक्षु अनेक द्वार वाले उपाश्रय में अकेला नहीं रह सकता, अपितु एक द्वार वाले उपाश्रय में दोनों समय धर्म जागरणा करते हुए अकेला रह सकता है।
सूत्र ८-९ में कथन है कि जहां पर अनेक स्त्री-पुरुष मैथुन सेवन करते हैं उन्हें देखकर श्रमण हस्तकर्म और मैथुन सेवन करके शुक्र पुद्गलों को निकाले तो क्रमश: गुरुमासिक और गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
सूत्र १०-११ में अन्य गण से आये हुए शिथिलाचारी भिक्षु-भिक्षुणी की चारित्र शुद्धि करके सम्मिलित करने का विधान किया गया है। सप्तम उद्देशक
सूत्र १-२ में निर्देश है कि प्रवर्तिनी अन्य गण से आई हुई संक्लिष्ट चित्तवाली साध्वी को आचार्य आदि की आज्ञा के बिना तथा उसके दोषों की शुद्धि कराये बिना अपनी नेश्राय में नहीं रख सकती है और उक्त साध्वी आचार्य आदि के पास आये तो प्रवर्तिनी से पूछे बिना भी वे निर्णय ले सकते
सूत्र ३-४ में बताया गया है कि यदि कोई साधु या साध्वी बार-बार शिथिलाचरण करे तो उसके साथ साम्भोगिक व्यवहार बंद किया जा सकता है। ऐसा करने के लिए साध्वियाँ आचार्य आदि के पास परस्पर प्रत्यक्ष वार्ता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org