SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार सूत्र का 427 1 नहीं कर सकती, किन्तु साधु प्रत्यक्ष बात कर सकते हैं। यदि शिथिलाचारी साधु एवं साध्वी पश्चात्ताप करे तो साम्भोगिक व्यवहार बन्द करना नहीं कल्पता है। सूत्र ५ से ८ में दीक्षा देने, न देने का विधान किया गया है। साधु अपने लिए साध्वी को और साध्वी अपने लिए साधु को दीक्षित नहीं कर सकते हैं, अपितु साधु, किसी अन्य साध्वी की शिष्या बनने का निर्देश कर सकता है तथा इसी तरह साध्वी भी निर्देश कर सकती है। सत्र ९ व १० का अनवाद दो प्रकार से किया गया है-१ साध्वी अति दूरस्थ आचार्य एवं प्रवर्तिनी की निश्रा स्वीकार करके दीक्षा न लेवे, किन्तु साधु दूरस्थ आचार्य आदि की निश्रा स्वीकार करके दीक्षित हो सकता है-(त्रीणिछेदसूत्राणि, ब्यावर)। २. साध्वी को अतिदूरस्थ क्षेत्र की ओर जाना नहीं कल्पता है, जबकि साधु जा सकते हैं (ववहारसुत्त-मुनि कन्हैयालाल 'कमल') सूत्र ११–१२ में कथन है कि यदि कोई साध्वी, अन्य साध्वी से क्षमायाचना करना चाहती है तो वह परोक्ष क्षमायाचना कर सकती है, किन्तु साधु को प्रत्यक्ष क्षमायाचना करना जरूरी है। सूत्र १३-१४ में निर्दिष्ट है कि कालिक सूत्र की स्वाध्याय वेला में उत्कालिक सूत्र का स्वाध्याय करना साधु के लिए अकल्पनीय है, किन्तु साध्वी निर्ग्रन्थ की नेश्राय में स्वाध्याय कर सकती है। सूत्र १५-१६ में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को स्वाध्याय वेला में ही स्वाध्याय करने का निर्देश दिया गया है, अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय नहीं करने का निर्देश है। सूत्र १७ में शरीर संबंधी अस्वाध्याय होने पर स्वाध्याय न करने का निर्देश है। किन्तु साधु-साध्वी परस्पर वाचना दे सकते हैं। सूत्र १८–१९ में बताया गया है कि ३० वर्ष तक दीक्षा पर्याय वाली साध्वी को ३ वर्ष के श्रमण पर्याय वाले निर्ग्रन्थ को उपाध्याय के रूप में स्वीकार करना कल्पता है और ६० वर्ष की दीक्षा पर्याय वाली साध्वी को आचार्य या उपाध्याय के रूप में ५ वर्ष के दीक्षा पर्याय वाले निर्ग्रन्थ को स्वीकार करना कल्पता है, किन्तु बिना आचार्य एवं उपाध्याय के रहना नहीं कल्पता है। सूत्र २१-२२ में निर्देश है कि यदि शय्यातर मकान बेच देवे या किराये पर दे देवे तो स्थिति के अनुसार पूर्व स्वामी या नये स्वामी या दोनों की आज्ञा ली जा सकती है। सूत्र २३ के अनुसार गृहस्वामी के न होने पर ज्ञातकुलवासिनी विधवा लड़की गृहस्वामी के पिता, भाई या पुत्र की आज्ञा लेकर निर्ग्रन्थ उपाश्रय में ठहर सकता है। सूत्र २४ में कथन है कि यदि मार्ग में ठहरना पड़े तो वहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy