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व्यवहार सूत्र
भिक्षु के विनय - व्यवहार का कथन किया गया है। मर्यादित दिनों से पूर्व आचार्य आदि मिल जावें तो पूर्व आज्ञा से ही विचरण करना चाहिए, किन्तु मर्यादित दिनों (४-५ ) के बाद अभिनिचरिका के लिए पुन: आज्ञा लेनी आवश्यक है।
सूत्र २४-२५ में साथ रहने वाले भिक्षुओं के साथ विनय व्यवहार का कथन है। अधिक दीक्षा पर्याय वाला भिक्षु कम दीक्षा पर्याय वाले भिक्षु की सेवा, इच्छा हो तो करे, इच्छा न हो तो न करे, पर रोगी हो तो सेवा करना अनिवार्य है। दीक्षा पर्याय में छोटे भिक्षु को ज्येष्ठ भिक्षु की सेवा करना अनिवार्य है। ज्येष्ठ सहयोग न लेना चाहे तो आवश्यक नहीं ।
सूत्र २६ से ३२ में बताया गया है कि अनेक भिक्षु, अनेक आचार्य, उपाध्याय आदि साथ-साथ विवचरण करें तो उन्हें परस्पर समान बनकर नहीं रहना चाहिए, अपितु जो दीक्षा में ज्येष्ठ हो उसी को प्रमुख मानना चाहिए। पंचम उद्देशक
सूत्र १ से १० में निर्देशित किया गया है कि प्रवर्तिनी कम से कम दो साध्वियों को लेकर विहार करे एवं ३ साध्वियों के साथ चातुर्मास करे । गणावच्छेदिका के लिये उपर्युक्त निर्दिष्ट साध्वियों में क्रमशः एक-एक संख्या बढ़ाने का निर्देश है।
सूत्र ११-१२ में प्रमुख साध्वी के काल करने पर शेष साध्वियों में से योग्य साध्वी को प्रमुखा बनाकर विचरण करने का निर्देश है। योग्य न होने पर शीघ्र ही अन्य संघाड़े में मिल जाने का विधान है।
सूत्र १३ - १४ में कहा गया है कि प्रवर्तिनी के आदेश अनुसार योग्य साध्वी को पदवी देनी चाहिए। योग्य न होने पर अन्य को पदवी दी जा सकती है। अयोग्य साध्वी को यदि अन्य साध्वियाँ पद छोड़ने का न कहें तो वे सभी साध्वियाँ दीक्षा छेट या तप प्रायश्चित्त की पात्र होती हैं।
सूत्र १५ -१६ में बताया गया है कि यदि कोई साधु या साध्वी प्रमादवश आचारांग व निशीथ सूत्र विस्मृत करता है तो वह जीवनपर्यन्त किसी भी पद के योग्य नहीं होता। रोगादि के कारण उपर्युक्त सूत्र विस्मृत हुए हों तो पुनः कण्ठस्थ करने के बाद उसे पद दिया जा सकता है।
सूत्र १७ -१८ में कथन है कि वृद्धावस्था प्राप्त भिक्षु को यदि आचार प्रकल्प अध्ययन विस्मृत हो जाए तो पुनः कण्ठस्थ करे या न करे तो भी उन्हें पद दिया जा सकता है। वे सोते-सोते, बैठे-बैठे (आराम से ) भी सूत्र की पुनरावृत्ति, श्रवण या पृच्छा कर सकते हैं।
सूत्र १९ में निर्देशित है कि विशेष परिस्थिति के बिना साधु-साध्वी को परस्पर आलोचना प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिए। सूत्र २० में परस्पर सेवा कार्य का भी निषेध किया गया है। सूत्र २१ में रात्रि में सर्प काटने पर स्थविरकल्पी भिक्षु को चिकित्सा कराना कल्पता है । उपचार करवाने पर भी वे प्रायश्चित्त के भागी नहीं होते हैं । जिनकल्पी को उपचार कराना नहीं कल्पता है।
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