SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार सूत्र सुश्री मीना बोहरा चार छेदसूत्रों में व्यवहार सूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें प्रायश्चित, आलोचना, पदों की योग्यता-अयोग्यता, पुनर्दीक्षा, विहार, आहार, निवास आदि श्रमणाचार संबंधी विविध व्यवहारों पर प्रकाश डाला गया है। आगम अध्येत्री एवं अध्यापिका सुश्री मीना बोहरा, एम.ए. (संस्कृत) ने व्यवहार सूत्र की विषयवस्तु को अपने आलेख में संक्षेप में उपनिबद्ध किया है, जिससे व्यवहार सूत्र के प्रतिपाद्य का सरलतया बोध हो जाता है। -सम्पादक व्यवहार सूत्र की गणना छेद सूत्रों में होती है । छेद सूत्रों में निर्ग्रन्थ एवं निर्ग्रन्थियों की प्रायश्चित्त-विधि का विधान किया गया है। छेद का अर्थ करते हुए बताया गया है झा ठाणं जेण ण बाहिज्जए त ये णियया । संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउत्ति ।। जिन क्रियाओं से धर्म में बाधा नहीं आती हो और जिससे आत्मा निर्मल होती हो उसे छेद कहते हैं । ये सूत्र चारित्र की शुद्धता स्थिर रखने के लिए हैं। निशीथ के भाष्यकर्ता ने छेद सूत्रों को प्रवचन का रहस्य बताते हुए गुह्य बताया है तम्हा न कहेयव्वं आयरियेण पवयणरहस्सं । खेत्तं कालं पुरिसं नाऊण पगासए गुज्झं । । - निशीथभाष्य 19.6184 संयमी जीवन यात्रा के दौरान लगे दोषों और प्रायश्चित्त द्वारा उनकी शुद्धि का वर्णन छेद सूत्रों में उपलब्ध है। इससे यह सूचित होता है कि जैन दर्शन में मानव की कमजोरियों को छिपाया नहीं गया है, अपितु अत्यन्त साहसपूर्वक यथार्थ को प्रस्तुत किया गया है और उनसे मुक्त होने का उपाय बताया गया है। प्रबल कारण होने पर न चाहते हुए भी या याद न रहने से या प्रमत्तता की स्थिति में दोष का सेवन हो जाता है । उस दोष की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त आवश्यक है, यही छेद सूत्रों का वर्ण्य विषय है। आर्य आर्यरक्षित ने आगमों को अनुयोगों के आधार पर चार भागों में विभक्त किया (आवश्यक निर्युक्ति ३६३ - ३६७) । उसके प्रथम भाग चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत छेद सूत्रों को लिया गया है। छेद सूत्र का नामोल्लेख सर्वप्रथम आवश्यक निर्युक्ति (७७०) में हुआ है। इसके पश्चात् विशेषावश्यक भाष्य (२२९५) एवं निशीथ भाष्य (५९४७) में हुआ है। छेद सूत्र की आचार संहिता को 'जैनागम साहित्य : मनन और मीमांसा' (पृ. ३४७) पुस्तक में चार भागों में विभक्त किया गया है - १. उत्सर्ग (सामान्य विधान ) २. अपवाद (परिस्थिति विशेष की दृष्टि से विशेष विधान ) ३. दोष (उत्सर्ग एवं अपवाद को भंग करना) और ४ प्रायश्चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy