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________________ 1416 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक । आदि सूत्र में प्राय: साम्य है। वहाँ 'कोसिया' के स्थान पर ‘एरावई' का प्रयोग है। अपवाद में स्थानांग की विशेषता है, वहां पाँच कारण बताये हैं। जैसे कि पंचहिं ठाणेहिं कप्पंति, त. १.भयंसि वा २.दुभिक्खंसि वा ३. पव्वहेज्जवणंकोई ४. उदयोघसि वा एज्जमाणंसि महतावा ५.अणारिएसु । छठे उद्देशक के अवचनादि चार सूत्र भी स्थानांग के छठे स्थान में मिलते हैं। दुर्ग प्रकृत के 'निग्गंथे निग्गंथिं दुग्गंसि वा विसमंसि वा' आदि सूत्रों का स्थानांग पंचम स्थान के द्वितीय उद्देशक और छठे स्थान में साम्य मिलता अर्थ की तुलना के लिये आचारांग आदि अन्य शास्त्र भी तुलना स्थान हो सकते हैं। बृहत्कल्प के टीका ग्रन्थ और संस्करण भद्रबाहुस्वामिकृत नियुक्ति के अतिरिक्त एक संघदासगणिकृत प्राकृत भाष्य है जो गाथाबद्ध है। आचार्य मलयगिरि ने कहा है कि- “सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जात:।' नियुक्ति और भाष्य का पृथक्करण करना कठिन हो गया है। क्षेमकीर्ति के उल्लेख से चूर्णि का होना भी पाया जाता है। फिर आचार्य मलयगिरि ने इस पर संस्कृत टीका की है, जो पूर्ण उपलब्ध नहीं होती। आचार्य क्षेमकीर्ति कहते हैं कि- तदपि कुतोऽपि हेतोरिदानी परिपूर्ण नावलोक्यत इति परिभाव्य मन्दमतिमौलिनाऽपि मया गुरूपदेशं निश्रीकृत्य श्रीमलयगिरिविरचितविवरणादूर्ध्व विवरीतुमारभ्यते।' इससे ज्ञात होता है कि मलयगिरिकृत टीका का जो भाग उपलब्ध नहीं है, उसी की क्षेमकीर्ति ने पूर्ति की है। पूर्वाचार्यों ने कुछ टब्बार्थ भी किये हैं। उपर्युक्त नियुक्ति, भाष्य और टीका सहित संपूर्ण ग्रन्थ "आत्मानन्द जैन सभा भावनगर'' से ६ भागों में प्रकाशित हुआ है। मुद्रित भाष्य के साथ लगे हुए लघु विशेषण से यह अनुमान सहज होता है कि बृहद्भाष्य भी होना चाहिए। इसके अतिक्ति डा. जीवराज छेलाभाई ने गुजराती अनुवाद सहित अहमदाबाद से भी एक संस्करण निकाला है। बाल ब्रह्मचारी शास्त्र विशारद पूज्य श्री अमोलऋषिजी महाराज द्वारा इसका हिन्दी अनुवाद भी किया गया है। जो हैदराबाद दक्षिण से प्रकाशित हुआ है। आगम मन्दिर पालीताणा और मुनि जिनविजयजी द्वारा मूल संस्करण भी निकाले गये हैं। . आचार्यश्री द्वारा अज्ञात टीकाकार की टीका सहित इस सूत्र का सम्पादन किया गया, जो सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल. के पूर्ववर्ती जोधपुर कार्यालय से प्रकाशित हुआ। तदनन्तर सन् 1977 में साण्डेराव से मूलानुस्पर्शी अनुवाद और विशेषार्थ के साथ 'कप्पसुत्तं' का प्रकाशन हुआ। सन् 1992 में आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर से "त्रीणि छेदसूत्राणि ग्रन्थ में इसका प्रकाशन अनुवाद एवं विवेचन के साथ हुआ है।-सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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