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________________ द्वादशांगी की रचना, उसका हास एवं आगम-लेखन ११. विपाकसूत्रांग १२. दृष्टिवादांग पूर्वनाम १. उत्पादपूर्व २. अग्रायणीय ५. ज्ञानप्रवाद ६. सत्यप्रवाद ३. वीर्यप्रवाद ४. अस्तिनास्ति प्रवाद ७. आत्मप्रवाद ८. कर्मप्रवाद १८४००००० १०८६८५६००५ ९. प्रत्याख्यान पद १०. विद्यानुवाद ११. अवंध्य १२. प्राणायु १३. क्रियाविशाल १४. लोकबिन्दुसार ९४००२७७०३५६००००० ३००८०८८६५१३९२००coc ५५५२५८०१८७३९४२७१०७ १७७६८२५६५९९६६१६६७४४० पूर्वो की पदसंख्या श्वेताम्बर परम्परानुसार एक करोड़ पद छियानवे लाख Jain Education International सत्तर लाख साठ लाख एक कम एक करोड एक करोड़ छ: पद छब्बीस करोड़ पद १ करोड़ अस्सी हजार ८४ लाख पद १ करोड़ १० लाख पद २६ करोड़ पद १ करोड़ ५६ लाख पद ९ करोड़ पद दिगम्बर परम्परानुसार एक करोड पद छियानवे लाख सत्तर लाख साठ लाख एक कम एक करोड़ पद एक करोड़ छ: पद छब्बीस करोड़ पद १ करोड़ ८० लाख पद 27 ८४ लाख पद १ करोड़ १० लाख पद ११ २६ करोड पर्द १२ १३ करोड़ पद ९ करोड़ पद साढ़े बारह करोड़ पद उपर्युल्लिखित तालिकाओं में अंकित साढ़े बारह करोड़ पद दृष्टिवाद और चतुर्दश पूर्वो की पदसंख्या से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के आगमों एवं आगम संबंधी प्रामाणिक ग्रन्थों में दृष्टिवाद की पदसंख्या संख्यात मानी गई है। शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की टीका में पूर्व को अनन्तार्थ युक्त बताते हुए लिखा है " पूर्व अनन्त अर्थ वाला होता है और उसमें वीर्य का प्रतिपादन किया जाता है । अत: उसकी अनन्तार्थता समझनी चाहिए।" अपने इस कथन की पुष्टि में उन्होंने दो गाथाएँ प्रस्तुत करते हुए लिखा है- "समस्त नदियों के बालकणों की गणना की जाय अथवा सभी समुद्रों के पानी को हथेली में एकत्रित कर उसके जलकणों की गणना की जाय तो उन बालकणों तथा जलकणों की संख्या से भी अधिक अर्थ एक पूर्व का होगा। इस प्रकार पूर्व के अर्थ की अनन्तता होने के कारण वीर्य की भी पूर्वार्थ के समान अनन्तता (सिद्ध) होती है। १३ नंदी बालावबोध में प्रत्येक पूर्व के लेखन के लिए आवश्यक मसि की जिस अतुल मात्रा का उल्लेख किया गया है उससे पूर्वो के संख्यात पद और अनन्तार्थयुक्त होने का आभास होता है। ये तथ्य यही प्रुकट करते हैं कि पूर्वो की पदसंख्या असीम अर्थात् उत्कृष्टसंख्येय पदपरिमाण की थी। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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