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जिनचाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क - इन सब उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि द्वादशांगी का पूर्वकाल में बहुत बड़ा पद परिमाण था। कालजन्य मन्दमेधा आदि कारणों से उसका निरन्तर हास होता रहा। आचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को कभी गर्व न करने का उपदेश देते हुए जो धूलि की राशि का दृष्टांत दिया उस दृष्टांत से सहज ही यह समझ में आ जाता है कि वस्तुत: द्वादशांगी का ह्रास किस प्रकार हुआ। कालकाचार्य ने अपनी मुट्ठी में धूलि भर कर उसे एक स्थान पर रखा। फिर आचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को संबोधित करते हुए कहा- “वत्स! जिस प्रकार यह धूलि की राशि इदा एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे स्थान पर रखने के कारण निरन्तर कम होती गई है, ठीक इसी प्रकार तीर्थकर भगवान महावीर से गणधरों को जो द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त हुआ था वह गणधरों से हमारे पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों को, उनसे उनके शिष्यों और प्रशिष्यों आदि को प्राप्त हुआ, वह द्वादशांगी का ज्ञान एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे और इसी क्रम में अनेक स्थानों में आते-आते निरन्तर हास को ही प्राप्त होता चला आया है।'' ३४ अतिशय, ३५ वाणी के गुण और अनन्त ज्ञान-दर्शन-चारित्र के धारक प्रभु महावीर ने अपनी देशना में अनन्त भावभंगियों की अनिर्वचनीय एवं अनुपम तरंगों से कल्लोलित जिस श्रुतगंगा को प्रवाहित किया, उसे द्वादशांगी के रूप में आबद्ध करने का गणधरों ने यथाशक्ति पूरा प्रयास किया, पर वे उसे निश्शेष रूप से तो आबद्ध नहीं कर पाये। तदनन्तर आर्य सुधर्मा से आर्य जम्बू ने, जम्बू से आर्य प्रभव ने और आगे चलकर क्रमश: एक के पश्चात् दूसरे आचार्यों ने अपने-अपने गुरु से जो द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त किया उसमें एक स्थान से दूसरे स्थान में आते-आते द्वादशांगी के अर्थ के कितनी बड़ी मात्रा में पर्याय निकल गए, छूट गए अथवा विलीन हो गए, इसकी कल्पना करना भी कठिन है।।
आर्य भद्रबाहु के पश्चात् (वी.नि.सं. १७०) अन्तिम चार पूर्व अर्थत: और आर्य स्थूलभद्र के पश्चात् (वी.नि.सं. २१५) शब्दत: विलुप्त हो गए।
द्वादशांगी के किस-किस अंश का किन-किन आचार्यों के समय में ह्रास हुआ यह यथास्थान बताने का प्रयास किया जायेगा। आर्य सुधर्मा से प्राप्त द्वादशांगी में से आज हमारे पास कितना अंश अवशिष्ट रह गया, यहाँ केवल यही बताने के लिए एक तालिका दी जा रही है, जो इस प्रकार हैअंग का नाम
मूल पद संख्या उपलब्ध पाठ (श्लोक प्रमाण) आचारांग
२५०० महापरिज्ञा नामक ७वाँ
अध्ययन विलुप्त हो चुका है। सूत्रकृतांग
२१०० स्थानांग
७२०००
३७७०
१८०००
३६०००
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