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द्वादशांगी की रचना, उसका हास एवं आगम-लेखन
प्राचीन दिगम्बर आचार्यों की यह मान्यता है कि भगवान महावीर ने सभी गणधरों को अर्थतः द्वादशांगी का उपदेश दिया। जयधवला में जब यह स्पष्टत: उल्लेख किया गया है कि आर्य सुधर्मा ने अपने उत्तराधिकारी शिष्य जम्बूकुमार के साथ-साथ अन्य अनेक आचार्यों को द्वादशांगी की वाचना दी थी तो यह कल्पना धवलाकार ने किस आधार पर की कि श्रमण भगवान महावीर ने अर्थत: द्वादशांगी का उपदेश सुधर्मादि अन्य गणधरों को न देकर केवल इन्द्रभूति गौतम को ही दिया ?
ऐसी स्थिति में अपनी परंपरा के प्राचीन आचार्यों की मान्यता के विपरीत धवलाकार ने जो यह नया मन्तव्य रखा है कि आर्य सुधर्मा को द्वादशांगी का ज्ञान भगवान् महावीर ने नहीं, अपितु इन्द्रभूति गौतम ने दिया, इसका औचित्य विचारणीय है।
ऊपर उल्लिखित प्रमाणों से यह निर्विवादरूपेण सिद्ध हो जाता है कि अन्य गणधरों के समान आर्य सुधर्मा ने भी भगवान महावीर के उपदेश के आधार पर द्वादशांगी की रचना की । अन्य दश गणधर आर्य सुधर्मा के निर्वाण से पूर्व ही अपने-अपने गण उन्हें सम्हला कर निर्वाण प्राप्त कर चुके थे । अतः आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही प्रचलित रही और आज वर्तमान में जो एकादशांगी प्रचलित है वह आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित है। शेष गणधरों द्वारा ग्रथित द्वादशांगी वीर निर्वाण के कुछ ही वर्षों पश्चात् विलुप्त हो गई। द्वादशांगी का ह्रास एवं विच्छेद
जिस प्रकार आज की श्रमण परम्परा आर्य सुधर्मा की शिष्य परम्परा है उसी प्रकार आज की श्रुतपरम्परा भी आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही है।
भगवान महावीर ने विकट भवाटवी के उस पार पहुँचाने वाला, जन्म, जरा, मृत्यु के अनवरत चक्र से परित्राण करने वाला, अनिर्वचनीय शाश्वत सुखधाम मोक्ष का जो प्रशस्त पथ प्रदर्शित किया था, उस मुक्तिपथ पर अग्रसर होने वाले असंख्य साधकों को आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी प्रकाशदीप की तरह २५०० वर्ष से आज तक पथ प्रदर्शन करती आ रही है। इस ढाई हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में भीषण द्वादशवार्षिक दुष्कालों जैसे प्राकृतिक प्रकोपों, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक क्रान्तियों आदि के कुप्रभावों से आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी भी पूर्णत: अछूती नहीं रह पाई। इन सबके अतिरिक्त कालप्रभाव, बुद्धिमान्द्य, प्रमाद, शिथिलाचार, सम्प्रदायभेद, व्यामोह आदि का घातक दुष्प्रभाव भी द्वादशांगी पर पड़ा। यद्यपि आगमनिष्णात आचार्यों, स्वाध्यायनिरत श्रमण-श्रमणियों एवं जिनशासन के हितार्थ अपना सर्वस्व तक न्यौच्छावर कर देने वाले सद्गृहस्थों ने श्रुतशास्त्रों को अक्षुण्ण और सुरक्षित बनाये रखने के लिये सामूहिक तथा
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