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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङका अंग का क्या अर्थ बताया?''
अपने शिष्य जम्बू के प्रश्न के उत्तर में उन अंगों का अर्थ बताने का उपक्रम करते हुए आर्य सुधर्मा कहते हैं- "आयुष्मन् जंबू ! अमुक अंग का जो अर्थ भगवान महावीर ने फरमाया, वह मैंने स्वयं ने सुना है। उन प्रभु ने अमुक अंग का, अमुक अध्ययन का, अमुक वर्ग का यह अर्थ फरमाया
__ अपने शिष्य जम्बू को आगमों का ज्ञान कराने की उपरिवर्णित परिपाटी सुखविपाक, दुःखविपाक आदि अनेक सूत्रों में भी परिलक्षित होती
नायाधम्मकहाओ के प्रारम्भिक पाठ से भी यही प्रमाणित होता है कि वर्तमान काल में उपलब्ध अंगशास्त्र आर्य सुधर्मा द्वारा गुम्फित किये गये हैं।
आगमों में उल्लिखित- “उन भगवान ने इस प्रकार कहा-'' इस वाक्य से यह स्पष्टत: प्रकट होता है कि इन आगमों में जो कुछ कहा जा रहा है उसमें किंचित्मात्र भी स्वकल्पित नहीं, अपितु पूर्णरूपेण वही शब्दबद्ध किया गया है जो श्रमण भगवान महावीर ने उपदेश देते समय अर्थत: श्रीमुख से फरमाया था।
केवल धवला को छोड़कर सभी प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों में भी यही मान्यता अभिव्यक्त की गई है कि अर्थ रूप में भगवान् महावीर ने उपदेश दिया और उसे सभी गणधरों ने द्वादशांगी के रूप में ग्रथित किया। आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने विक्रम की छठी शताब्दी में तत्त्वार्थ पर सर्वार्थसिद्धि की रचना की, उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है कि परम अचिन्त्य केवलज्ञान की विभूति से विभूषित सर्वज्ञ परमर्षि तीर्थकर ने अर्थरूप से आगमों का उपदेश दिया। उन तीर्थकर भगवान् के अतिशय बुद्धिसम्पन्न एवं श्रुतकेवली प्रमुख शिष्य गणधरों ने अंग-पूर्व लक्षण वाले आगमों (द्वादशांगी) की रचना
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इसी प्रकार आचार्य अकलंक देव (वि. ८वीं शती) ने तत्त्वार्थ पर अपनी राजवार्तिक टीका में और आचार्य विद्यानन्द (वि.९वीं शती) ने अपने तत्त्वार्थ श्लोकवार्त्तिक में इसी मान्यता को अभिव्यक्त किया है कि तीर्थकर आगमों का अर्थत: उपदेश देते हैं और उसे सभी गणधर द्वादशांगी के रूप में शब्दत: ग्रथित करते हैं। . धवला में यह मन्तव्य दिया गया है कि आर्य सुधर्मा को अंगज्ञान इन्द्रभूति गौतम ने दिया। परन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में कहीं इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि धवलाकार की यह अपनी स्वयं की नवीन मान्यता है।
श्वेताम्बर आचार्यों की ही तरह धवलाकार के अतिरिक्त अन्य सभी
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