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________________ 23 द्वादशांगी की रचना, उसका हास एवं आगम-लेखन अंगों में शब्दों और शैली की न्यूनाधिक विविधता होने पर भी उनके मूल भाव तो पूर्णरूपेण वही थे जो भगवान महावीर ने प्रकट किये। भगवान महावीर के ११ गणधरों की वाचनाओं की अपेक्षा से ९ गण थे और उनकी पृथक्-पृथक् ९ वाचनाएँ थीं । ११ में से ९ गणधर तो भगवान महावीर के निर्वाण से पूर्व ही मुक्त हो गये । केवल इन्द्रभूति और आर्य. सुधर्मा ये दो ही गणधर विद्यमान रहे। उनमें भी इन्द्रभूति गौतम तो प्रभु की निर्वाणरात्रि में ही केवली बन गये और १२ वर्ष पश्चात् आर्य सुधर्मा को अपना गण सौंप कर निर्वाण को प्राप्त हुए। अतः आर्य सुधर्मा को छोड़कर शेष दशों गणधरों की शिष्य-परम्परा और वाचनाएँ उनके निर्वाण के साथ ही समाप्त हो गई, आगे नहीं चल सकीं। ऐसी अवस्था में भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनके धर्मतीर्थ के उत्तराधिकार के साथ-साथ भगवान के समस्त प्रवचन का उत्तराधिकार भी आर्य सुधर्मा को प्राप्त हुआ और केवल आर्य सुधर्मा की ही अंगवाचना प्रचलित रही। बारहवें अंग दृष्टिवाद का आज से बहुत समय पहले विच्छेद हो चुका है। आज जो एकादशांगी उपलब्ध है, वह आर्यसुधर्मा की ही वाचना है। इस तथ्य की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमाण आगमों में उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं आचारांग सूत्र के उपोद्घातात्मक प्रथम वाक्य में – “सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं ।" अर्थात् - हे आयुष्मन् (जंबू) मैंने सुना है, उन भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा है. । इस वाक्य रचना से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि इस वाक्य का उच्चारण करने वाला गुरु अपने शिष्य से वही कह रहा है जो स्वयं उसने भगवान महावीर के मुखारविन्द से सुना था । आचारांग सूत्र की ही तरह समवायांग, स्थानांग, व्याख्या - प्रज्ञप्ति आदि अंगसूत्रों में तथा उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि अंगबाह्य श्रुत में भी आर्य सुधर्मा द्वारा विवेच्य विषय का निरूपण - "सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं" इसी प्रकार की शब्दावली से किया गया है । अनुत्तरौपपातिक सूत्र, ज्ञाताधर्म कथा आदि के आरंभ में और भी स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है: ... तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, अज्ज सुहम्मस्स . परिसा पडिगया । 12 ।। समोसरणं.. जंबू जाव पज्जुवासइ एवं वयासी जइणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अयमट्ठे पण्णत्ते, नवमस्स णं मंते ! अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तेण के अट्ठे पण्णत्ते | 3 || तएण से सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी- एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्ते नवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तिण्णि वग्गा पण्णत्ता ।।4।।" आर्य जम्बू ने अपने गुरु आर्य सुधर्मा से समय-समय पर अनेक प्रश्न प्रस्तुत करते हुए पला- “भगवन! श्रमण भगवान महावीर ने अमक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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