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नन्दीसूत्र और उसकी महत्ता
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समयसुन्दर उपाध्याय ने अपने समाचारी शतक में भी लिखा है
" तर्हि कथमेतावन्तो विसंवादा लिखितास्तेन ? उच्यते-- एकं तु कारणमिदं यथा-यथा यस्मिन् यस्मिन् आगमे मृतावशिष्टसाधुभिर्यद् यदुक्तम् तथा तथा तस्मिन् तस्मिन आगमे श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणेनाऽपि पुस्तकारूढीकृतम्, न हि पापभीरवो महान्त 'इदं सत्यम्' 'इदं तु असत्यमिति' एकान्तेन प्ररूपयन्तीति, द्वितीयं तु कारणमिदं यथा वलभ्यां यस्मिन्काले देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणतो वाचना प्रवृत्ता तथा तस्मिन्नेव काले मथुरानगर्यामपि स्कन्दिलाचार्यतोऽपि द्वितीया वाचना प्रवृत्ता तदा तत्कालीन मृतावशिष्टछद्मस्थसाधुमुखविनिर्गताऽऽगमालापकेषु संकलनाया विस्मृतत्वादिदोष एव वाचनाविसंवादकारको जातः ’– पृ. ८०
दुर्भिक्ष के बाद बचे हुए साधुओं ने जिस-जिस आगम में जैसा कहा वैसा देवर्द्धिगणी ने पुस्तकारूढ कर लिया, क्योंकि पापभीरु आचार्य यह सत्य, यह असत्य ऐसा एकान्त से प्ररूपण नहीं करते। दूसरा वलभी और मथुरा में एक समय दो वाचनाएँ हुई थी, जिसमें मृतावशिष्ट साधुओं के मुख से निकले हुए आलापकों की संकलना में विस्मृतत्व आदि दोष ही वाचना के विसंवाद का कारण हुआ । उपर्युक्त उल्लेख से वाचनाभेद व मतभेद का कारण स्पष्ट हो जाता है, इसलिये शंका करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
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