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________________ 380 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क का है, उनमें द्रव्यजाति इस सामान्य प्रकार से धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को मतिज्ञानी जानता है और धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश इस विशेष रूप से भी जानता है, किन्तु धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को नहीं देखता, केवल योग्य देश में स्थित शब्दरूप आदि को देखता है, देखें- वह टीका का अंश- "आदेश: प्रकार:, स च सामान्यतो विशेषतश्च । तत्र द्रव्यजातिसामान्यदेशेन सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, विशेषतोऽपि यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देश इत्यादि न पश्यति सर्वान् धर्मास्तिकायादीन्, शब्दादींस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपीति । " श्रुतज्ञान द्वादशांगी का परिचय समवायांग सूत्र में नन्दीसूत्र से कुछ भिन्न मिलता है। परिशिष्ट में समवायांग का पाठ दिया है, जिसको पढ़कर पाठक सहज में भिन्न अंश को समझ सकते हैं । उसमें बहुत सा अंश विशिष्टतासूचक है, किन्तु आठवें, नववें और दशवें अंग के परिचय में जो भेद है वह विशेष विचारणीय है। आठवें अंग के ८ वर्ग और उद्देशन काल हैं, परन्तु समवायांग में दस अध्ययन, सात वर्ग और १० उद्देशनकाल, समुद्देशनकाल कहे हैं। टीकाकार ने इसका समाधान ऐसा किया है- १ प्रथम वर्ग की अपेक्षा ही दश अध्ययन घटित होते हैं, २ प्रथमवर्ग से इतर की अपेक्षा ७ वर्ग होते हैं । उद्देशनकाल के लिये लिखते हैं कि- 'नास्याभिप्रायमवगच्छामः अर्थात् इसका अभिप्राय हम नहीं समझते। सम्भव है यह वाचनान्तर की दृष्टि से लिखा गया हो । नवम अंग के तीन वर्ग और तीन उद्देशनकाल हैं, किन्तु समवायांग में दश अध्ययन, तीन वर्ग और उद्देशनकाल व समुद्देशनकाल १० लिखे हैं । टीकाकार श्री अभयदेवसूरि इसके विवेचन में लिखते हैं कि- 'वर्गश्च युगपदेवोद्दिश्यते इत्यतस्त्रय एव उद्देशनकाला भवन्तीत्येवमेव च नन्द्यामभिधीयन्ते, इह तु दृश्यन्ते दशेत्यत्राभिप्रायो न ज्ञायत इति” – सम । अर्थात् वर्ग का एक साथ ही उद्देशन होता है, इसलिये तीन ही उद्देशनकाल होते हैं और ऐसा ही नन्दीसूत्र में कहा जाता है। यहां दश उद्देशनकाल दिखते हैं, किन्तु इसमें अभिप्राय क्या? वह मालुम नहीं होता । प्रश्नव्याकरण के ४५ उद्देशनकाल के लिये भी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि 'वाचनान्तर की अपेक्षा' ऐसा उत्तर देते हैं। उपर्युक्त भेदों के सिवाय भी जो भेद हों, उनके लिये वाचना भेद को कारण समझना चाहिये । मलयगिरि आचार्य ने अपनी टीका में यही कारण दिखाया है, यथा- “इह हि स्कन्दिलाचार्य - प्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत्, तद्यथा एको वलभ्यामेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थ-संघटने परस्परवाचनाभेदो जातः । विस्मृतयोर्हि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः ।" For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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