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________________ | 374 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | मिथ्याश्रताधिकार) नन्दीसूत्र के अध्ययन की विशिष्टता नन्दीसूत्र में पांच ज्ञानों का विस्तृत स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। कारण कि 'पढमं नाणं तओ दया'' अर्थात् दया की अपेक्षा ज्ञान का महत्त्व अधिक है, इसलिए नन्दीसूत्र का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। अंगसूत्रों से प्राय: उद्धृत कर, संकलयिता श्री देववाचक क्षमाश्रमण ने इसको उत्कालिक सूत्रों के अन्तर्भूत कर दिया, जिससे केवल अनध्याय को छोड़कर सदैव इसका स्वाध्याय किया जा सकता है। ज्ञान का प्रतिपादक होने से इसका मांगलिक होना भी स्वत: सिद्ध है। ज्ञान की आराधना से जब निर्वाणपद की भी प्राप्ति हो सकती है तो फिर और वस्तुओं का तो कहना ही क्या? इस बात का साक्ष्य भगवतीसूत्र (शतक ८ उद्देशक १० सूत्र ३५५) में है-- "उक्कोसियं णं भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अंतं करेंति? गोयमा! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति। अत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति, अत्थेगइए कप्पोवएसु वा कप्पातीएसु वा उववज्जति। मज्झिमियं णं भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झंति जाव अंतं करेंति? गोयमा! अत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिझंति, जाव अंतं करेंति, तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ। जहन्नियण्णं भंते! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहि सिज्झति, जाव अत करेंति? गोयमा! अत्थेगइए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंत करेइ, सत्तट्ठ भवग्गहणाइं पुण नाइक्कमइ।" । ___ अर्थात् जघन्य सम्यग्ज्ञान की आराधना से भी जीव अधिक से अधिक ७-८ भव करके सिद्ध हो सकता है। इससे ज्ञानमय नन्दीसूत्र की विशिष्टता सहज ज्ञात हो सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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