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नन्दीसूत्र और उसकी महत्ता
*आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. ने नन्दीसूत्र का संस्कृत छाया, हिन्दी टीका एवं अनुवाद के साथ संशोधन-सम्पादन किया था, जिसका प्रकाशन सन् १९४२ में सातारा से हुआ था। आचार्य श्री ने तब प्रस्तावना लेखन के रूप में नन्दीसूत्र एवं सूत्रकार की जो चर्चा की थी, उसका अंश यहां प्रस्तुत है। आचार्य श्री ने कुछ विषयों का विवेचन आचार्य श्री आत्मारामजी म.सा. द्वारा लिखित भूमिका में आ जाने से छोड़ दिया था। इस प्रकार आचार्य श्री आत्मारामजी म.सा. एवं आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. के लेख एक-दूसरे के पूरक हैं।-सम्पादक
नन्दीसूत्र की गणना मूलसूत्रों में होती है। नियुक्तिकार ने 'नन्दी' शब्द का निक्षेप करते हुए कहा है कि 'भावंमि नाणपणगं' अर्थात् भावनिक्षेप में पाँच ज्ञान को नन्दी कहते हैं। नाट्यशास्त्र में और १२ प्रकार के वाद्य अर्थ में भी नन्दी शब्दका प्रयोग आता है। किन्तु यहां पाँच ज्ञानरूप भावनन्दी का वर्णन करने एवं भव्यजनों के प्रमोद का कारण होने से यह शास्त्र नन्दी कहलाता है। पाँच ज्ञान की सूचना करने से यह सूत्र है। अंगादि आगमों में नन्दी का स्थान- अंग, उपांग, मूल व छेद इस प्रकार जैनागमों के प्रसिद्ध जो चार विभाग हैं उनमें प्रस्तुत नन्दीसूत्र का मूल आगम में स्थान है, क्योंकि इसमें आत्मा के मूल गुण ज्ञान का वर्णन किया गया है। (अंग, उपांग, मूल व छेद की विशेष जानकारी के लिए सातारा से प्रकाशित दशवैकालिक सूत्र की भूमिका देखें) नन्दीसूत्र का विशेष परिचय
नन्दीसूत्र का विषय है आत्मा के ज्ञानगुण का वर्णन करना। इसमें ज्ञान से संबंध रखने वाले संस्थान आदि सब बातों को नहीं कह पाँचों ज्ञानों के मुख्य भेदों का स्वरूप और उनके जानने का विषय दिखाया गया है। विषय-नन्दीसूत्र में आचार्य श्री देववाचक ने सर्वप्रथम अर्हदादि आवलिका रूप से ५० गाथाओं में मंगलाचरण किया है। फिर आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञान के पाँच भेद करके प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष व परोक्ष संज्ञा से ज्ञान के दो प्रकार किये हैं। प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष व नोइन्द्रियप्रत्यक्ष ऐसे दो भेद करके प्रथम ५ प्रकार का इन्द्रियप्रत्यक्ष कहा है, जिसको जैन न्यायशास्त्र की परिभाषा में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। तदनन्तर नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष में अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान व केवलज्ञान का अवान्तर भेदों के साथ वर्णन किया है। इस प्रकार प्रधानत्व की दृष्टि से प्रत्यक्ष वर्णन करके फिर परोक्ष ज्ञान में आभिनिबोधक ज्ञान के अश्रुत-निश्रित व श्रुत-निश्रित ऐसे दो भेद किए गए हैं तथा औत्पत्तिकी आदि ४ बुद्धिओं के उदाहरणपूर्वक वर्णन से अश्रुत निश्रित मतिज्ञान कहा गया है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा भेद से भिन्न श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का प्रभेदों से वर्णन करके प्रतिबोधक और मल्लक के
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