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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक | यानी गुरु अथवा अपने से बड़े मुनि की उपस्थिति में अदब से कैसे खड़े रहना, हाथ-पांव आदि की हलचल संयत रखना, दृष्टि नीची, बैठना-सोना पड़ ही जाए तो अपना आसन या बिस्तर उनसे नीचे समतल पर रखना, जोर से हंसना या बोलना नहीं, ना ही जल्दी जल्दी बात करना। इस तरह गुरुओं का आदर करने से वे प्रसन्न होकर योग्य मार्गदर्शन करते रहेंगे। उन्हें अनादर से असंतुष्ट किया तो साधना पथ से ही भटक जाओगे।
विनय का एक रूप गुर्वाज्ञा का पूर्णत: पालन भी है, वैसा करने वाला उनका प्रीतिभाजन तो बनता ही है, शीघ्र ज्ञान व कीर्ति संपादन कर स्वयं सम्माननीय/अर्हत् भी बन सकता है। यह विषय है अध्ययन ९.३ का।।
९.४ में विनय समाधि के ४ प्रकार बताते हुए, पहले प्रकार को भी वही नाम दिया है। अन्य तीन प्रकार हैं- श्रुत समाधि, तप समाधि एवं आचार समाधि। तत्पश्चात् इनके भी ४-४ यानी समग्रतया १६ प्रभेद बताए गए हैं।
अस्तु। ‘स भिक्खू' अर्थात् वहीं सच्चा भिक्षु है ऐसी ध्रुव पंक्तियुक्त २० गाथाओं सहित २१ वीं जोड़कर बनता है दसवां अध्ययन। हालांकि इसकी गाथा ७,८,१० में उत्तराध्ययन १५.१२ एवं ११ की झलक साफ दिखती है, फिर भी प्रस्तुत ग्रंथ के अ.१-९ का सार यहां मौजूद है। सद्भिक्षु के इस स्वरूप का सतत स्मरण-चिंतन नवदीक्षित का आलंबन बनकर उसे संयम मार्ग में स्थिर करता है।
किन्तु फिर भी अगर कोई डिग जाए, तो सम्हाल कर पुन: संयम में स्थिर करने के उद्देश्य से रतिवाक्या शीर्षक वाली प्रथम चूलिका में पथभ्रष्ट साधु की दुर्गतियों का वर्णन किया गया है। जैसे भोगों में आसिक्तवश अनेक असंयत कृत्य करके, मृत्यु के बाद दुःखपूर्ण अनेक जीवगतियों में भटकते रहना, बोधिप्राप्ति से बहुत दूर.... ।
दूसरी चूलिका एवं दशवैकालिक सूत्र के अंतिम भाग हेतु दो वैकल्पिक शीर्षक मिलते हैं। एक है विवित्तचरिया(विविक्तचर्या) अर्थात् समाज से दूर एकान्त में रहने वाले मुनि की दिनचर्या। दूसरा शीर्षक है विइत्तचरिया (विचित्रचर्या) (आ. हेमचन्द्र का परिशिष्टपर्वन् ९.९८)। जैसा कि इसके श्लोक २ एवं ३ में बताया गया है अनुस्रोत: संसारो प्रतिस्रोतस्तस्योत्तारः (अणुसोओ संसारो पडिसोओ तस्स उत्तारो)। अर्थात् प्रवाह के साथ बहते जाने से जन्म-मरण का चक्र ही चलता रहता है, उससे पार उतरना हो तो प्रवाह के विरुद्ध दिशा में तैरना चाहिए और यही विचित्र (यहां असाधारण) जीवनक्रम नवदीक्षित को भी अपनाना चाहिए। इस प्रकार सजग होकर, इंद्रियजयी बनकर, संयमित जीवन जीनेवाला ही आत्मा का रक्षण करके सब दुःखों से मुक्ति पाता है (अंत के श्लोक १५ एवं १६)।
-Sanskrit Dictionary Project
Daccan College, PUNE
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